महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में फसल विविधीकरण पर दो दिवसीय अधिकारियों का प्रशिक्षण सम्पन्न  

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23 Aug 25
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महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में फसल विविधीकरण पर दो दिवसीय अधिकारियों का प्रशिक्षण सम्पन्न   

उदयपुर। महाराणा प्रताप कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, उदयपुर के अनुसंधान निदेशालय द्वारा फसल विविधीकरण परियोजना के अंतर्गत आयोजित दो दिवसीय अधिकारियों का प्रशिक्षण कार्यक्रम आज सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ। इस प्रशिक्षण में उदयपुर, चित्तौड़गढ़ एवं राजसमंद जिलों से लगभग 30 सहायक कृषि अधिकारी एवं कृषि पर्यवेक्षक शामिल हुए।

इस प्रशिक्षण का उद्देश्य अधिकारियों को फसल विविधीकरण की आधुनिक तकनीकों, उसकी चुनौतियों और अवसरों, उत्पादन एवं लाभप्रदता बढ़ाने तथा ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन की संभावनाओं से अवगत कराना था।

प्रशिक्षण के प्रथम दिन विशेषज्ञों ने विभिन्न सत्रों के माध्यम से प्रतिभागियों को फसल विविधीकरण के महत्व पर विस्तृत जानकारी दी। इस दौरान बदलते जलवायु परिदृश्य में विविधीकृत खेती की आवश्यकता, संसाधनों के संतुलित उपयोग और बाजार की मांग के अनुरूप फसलों के चयन जैसे विषयों पर चर्चा हुई। प्रतिभागियों को यह भी बताया गया कि किस प्रकार विविधीकृत खेती से न केवल किसान की आय बढ़ती है बल्कि मृदा स्वास्थ्य और प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण भी संभव होता है।

प्रशिक्षण के दूसरे दिन कार्यक्रम की शुरुआत डॉ. धर्मपाल सिंह डूडी के व्याख्यान से हुई। उन्होंने अधिकारियों को विस्तार से बताया कि मृदा स्वास्थ्य किसी भी फसल उत्पादन की आधारशिला है। इसके लिए मृदा नमूना लेने की सही विधि अपनाना आवश्यक है। उन्होंने व्यावहारिक प्रदर्शन के माध्यम से समझाया कि खेत में कितनी गहराई से नमूना लिया जाए, कितने स्थानों से नमूना लेना चाहिए तथा नमूनों को मिलाकर प्रतिनिधिक नमूना कैसे तैयार किया जाता है।

इसके बाद डॉ. दीपक ने विविधीकृत फसलों में सूत्रकृमि प्रबंधन की तकनीक पर चर्चा की। उन्होंने बताया कि सूत्रकृमि कृषि उत्पादन में एक बड़ी चुनौती है, जो जड़ों पर आक्रमण कर पौधों की वृद्धि को प्रभावित करता है। डॉ. दीपक ने इसकी पहचान के लक्षण, हानिकारक प्रभाव और नियंत्रण के उपायों पर प्रकाश डाला।

इसके बाद डॉ. सुभाष मीणा (DDO) ने मृदा एवं जल प्रबंधन पर सत्र लिया। उन्होंने बताया कि बदलते जलवायु परिदृश्य में किसानों के लिए जल संरक्षण सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि यदि किसान मृदा की उर्वरता और जल की उपलब्धता पर ध्यान देंगे तो विविधीकृत खेती और भी सफल हो सकेगी।

इसके पश्चात् डॉ. रवि शंकर शर्मा, सहायक निदेशक अनुसंधान ने प्रतिभागियों को विश्वविद्यालय के जैविक खेत का अवलोकन कराया। उन्होंने प्रतिभागियों को जैविक खेती में अपनाए जाने वाले विभिन्न उपाय जैसे – हरी खाद, कम्पोस्ट, वर्मी कम्पोस्ट, जैविक कीटनाशक एवं जैव उर्वरकों के प्रयोग की जानकारी दी। साथ ही, प्रतिभागियों को यह भी बताया गया कि किस प्रकार जैविक खेती के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ बेहतर गुणवत्ता वाली फसलें प्राप्त की जा सकती हैं, जिनकी बाजार में अधिक मांग रहती है।

अंत में, अनुसंधान निदेशक डॉ. अरविन्द वर्मा ने दूसरे दिन के सभी सत्रों की समीक्षा की और अधिकारियों को सुझाव दिया कि वे इन तकनीकों को किसानों तक पहुँचाएं। उन्होंने कहा कि केवल सैद्धांतिक ज्ञान ही नहीं बल्कि व्यावहारिक अनुभव और किसानों से संवाद ही प्रशिक्षण का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए।

कार्यक्रम के समापन अवसर पर परियोजना प्रभारी डॉ. हरि सिंह ने सभी विशेषज्ञों, अधिकारियों एवं संकाय सदस्यों का आभार व्यक्त किया। प्रशिक्षण के सफल संचालन में तकनीकी दल के नरेंद्र यादव, रामजी लाल, एकलिंग जी, झाला जी एवं मदन जी की सक्रिय भूमिका रही।

दो दिवसीय प्रशिक्षण का समापन पोस्ट ट्रेनिंग इवेल्यूएशन टेस्ट से हुआ, जिसमें प्रतिभागियों के ज्ञान का मूल्यांकन किया गया। विशेषज्ञों का मानना था कि फसल विविधीकरण किसानों के लिए एक सशक्त विकल्प है, जिससे अधिक लाभ, कृषि प्रणाली की दीर्घकालिक स्थिरता और ग्रामीण स्तर पर नए रोजगार के अवसर सुनिश्चित होंगे।


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