भावपूर्ण और अर्थपूर्ण सृजन ही योगमाया शर्मा "योगी " के लेखन का मर्म

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Published on : 27 Apr, 24 05:04

डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, कोटा

भावपूर्ण और अर्थपूर्ण सृजन ही योगमाया शर्मा "योगी " के लेखन का मर्म

राष्ट्र -प्रेम समाज सेवा में, लेना है संज्ञान,
नित्य नव-सृजन करके हमें, गढ़ना है प्रतिमान।
सामाजिक बुराई मिटाकर,नवल राह दिखाएं -
काव्य सारथी बनकर होना, है सबको गतिमान।

सृजन के माध्यम से राष्ट्र प्रेम, सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने के लिए राह दिखाना, संस्कृति के संरक्षण, आचरण में सुधार के लिए सतत् गतिमान रहने के अपने लेखन मर्म के साथ गतिमान रहने ने का संदेश
देते इस मापनी युक्त - मुक्तक की कवियित्री योगमाया शर्मा "योगी " एक ऐसी रचनाकार है जिनकी रचनाएं कथनी और करनी में अंतर रखने वालों की आंखें खोल कर उन्हें आइना दिखाती हैं।  समृद्ध हिंदी भाषा के अतुल ज्ञान भण्डार से प्रभावित गद्य पद्य सहित सभी विधाओं दोहे कविता मुक्तक गीत ग़ज़ल आदि  लिख कर गर्व की अनुभूति करती हैं। इनकी रचनाएं कालजयी रचनाकारों के रचनाकर्म से भी प्रेरित हैं। मुंशी प्रेमचंद जी इनके प्रिय लेखक रहे हैं । महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, रामधारी सिंह दिनकर, सुमित्रानंदन पंत जी, हरिवंशराय बच्चन जी आदि के सृजन को आत्मसात किया। वर्तमान में कवि कुमार विश्वास और मैत्रयी पुष्पा सहित कई लेखक लेखिकाओं से प्रभावित हैं। 
           ज्यादा समय नहीं हुआ कोरोना काल के दरम्यान आकाशवाणी केंद्र के ऑनलाइन होने वाले "बिग मेमसाब" कार्यक्रम से ये मजाक के मूड में जुड़ी और टाप 39 में से टाप 15 में पहुॅंची।  सभी ने एक कवयित्री के तौर पर इनको सराहा। बस यही से इनके नियमित लेखन की शुरुआत हो गई। यूं विद्यालय तथा कॉलेज के समय से  लिखना शुरू किया पर वो डायरी में ही लिखा रह गया। कभी - कभी लघु कथाएं और संस्मरण भी लिखती हैं। शुरुआती लेखन में  छंद मुक्त रचनाएं लिखी हैं परंतु जब से  मात्रा भार सीखना शुरू किया तो अब छंद आधारित सृजन इनकी शैली बन गई और इसी शैली पर अपने को केंद्रित कर लिया है। अब तक आठ साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित हुई हैं और प्रथम एकल संग्रह प्रकाशन की प्रक्रिया में है। 
            वर्तमान समाज में कहीं पीछे छूट गया बचपन, स्वार्थ से तिरोहित होती प्रेम भावना, संस्कारों को छोड़ आधुनिकता का जामा ओढ़ना, ज्ञान और परिवेश की बदलती परिभाषाएं, कमाने की होड़ में धूमिल होती मानवता के परिवेश को रचनाकर ने कितने मार्मिक स्वरों में मुखर किया है, इसकी बानगी देखिए इनकी एक मुक्त छंद रचना में...............
मानस मन छिपाकर कई दर्द, अधर पर हॅंसी गढ़े,
सुप्त-क्षीण उर की पीड़ा,मौन से स्वयंमेव ही लड़े।
बचपन कहीं छूट गया ,क्यों ओढ़ ली समझदारी-
जी रहे मानव आज सब, झूठी शान में उलझे पड़े।
स्वार्थ लिप्त मानसी वृत्ति, प्रेम भाव हुए ओझल, 
दया, करूणा, उपकार ,सद्भाव लग रहे बोझिल।
सब कुछ हासिल हो ज़ल्द,चाहत में है भ्रमित -
बढ़ रही कुत्सित प्रवृत्ति, मानवता हो गयी धूमिल।
शहर छूटा, हवा बदली ,बदली संस्कृति की भाषा ,
अपनत्व संस्कार छूटे धार ,आधुनिकता का लबादा।
दौलत कमाने की चाहत में निकली पीढ़ी बेघर हुई-
मॉं- बाप अकेले, घर द्वार सूने ,जगी कैसी पिपासा।
बदलते वक्त मौसम की तरह ,जग सारा बदल गया ,
बदली ज्ञान की परिभाषा, परिव़ेश भी बदल गया।
यंत्रों का प्रयोग करता मानव, खुद मशीन बन गया,
एक होड़ में दौड़ते जी रहे हम, सब कुछ बदल गया ।
           बदलते सामाजिक परिवेश की समग्रता को एक रचना के मध्यम से स्वरों में उजागर करती रचनाकार के सृजन की बानगी की ये पंक्तियां भी गौरतलब है.........
क़लम तुम निर्बाध ही लिखना
बंधन मुक्त सदा जीना 
मेरी उलझन आशाएं ,
हृदय की पीर कुंठाएं।
करें प्रतिकार जो उर में ,
भ्रमण होती है ज़ेहन में।
कभी प्रतिबंधित है जग से ,
बंधी अपने परायों से ।
रूदन करती है जो घट में ,
मौन बैठी सुप्त अधर में।
कभी लाचार बेबस सी,
शोषित आवाज दबी सी।
मुखरित हो सदा लिखना ,
कोरे पन्नों पर तुम सजना ।
          छंद विधा पर वर्तमान में इनका शिक्षण और लेखन चल रहा है। विविध छंद विधाओं में इनका गूढ़ सृजन दृष्टवय है। प्रकृति  सौंदर्य पर आधारित शांत, प्रेम और सद्भावना के स्वरों को मुखर करती एक गीतिका छंद रचना की बानगी देखिए...............
ओस की बूंदें बिखेरी,भोर मुस्काती भली।
रात काली बीतती है, भानु किरणें खिल चली।।
प्रात की बेला सुहानी,गीत मधुरिम रागिनी ।
वात शीतल उर लुभाती,मस्त झूमें कामिनी।।
कूक खग शाखा फुदकते , पुष्प बगिया में खिले ।
पात शाखा बेल झूमें, प्रेम मधुऋतु मिले।।
नाच उठता मन मयूरा,आस संचित हृद तले।
भूल सारे क्लेश मन के, भाव निश्छल नित
पले।।
नाद ऊॅं मधुरम बजते, राम माला जप करें।
काम तज सारे जगत के,ध्यान प्रभुवर का धरें।।
शाॅंत हो मानस सभी के, प्रीत की गंगा बहे।
एक ही सदभावना से, दर्द सब आपस सहे।।
दोहा छंद -
मानस मन व्यथित हुआ,देख जगत के भाव।
प्रेम दया को ओढ़ सब ,मन में धरे कुभाव।।
धर्म -ज्ञान की आड़ में, चला रहे व्यापार ।
प्रवचन देते ज्ञान का ,अज़ब करे व्यवहार।।
विधाता छंद -
कभी सुख में कभी दुःख में ,सदा समभाव ही रहना
मिटाकर क्लेश कटुताएं, हमेशा नेह में रहना ।
छुपाना दोष ना कोई भला किस बात से डरना
हुआ है कौन सर्वश्रेष्ठ, भरोसे में  नहीं रहना।
मधु मालती छंद 
मानस मन व्यथित हुआ,देख जगत के भाव।
प्रेम दया को ओढ़ सब ,मन में धरे कुभाव।।
धर्म -ज्ञान की आड़ में, चला रहे व्यापार ।
प्रवचन देते ज्ञान का ,अज़ब करे व्यवहार।।
विधाता छंद -
कभी सुख में कभी दुःख में ,सदा समभाव ही रहना
मिटाकर क्लेश कटुताएं, हमेशा नेह में रहना ।
छुपाना दोष ना कोई ,भला किस बात से डरना
हुआ है कौन सर्वश्रेष्ठ, भरोसे में  नहीं रहना।
 इन्होंने अभी तक लगभा 500 से अधिक छंद मुक्त रचनाओं और 80 से अधिक छंद आधारित रचनाओं का सृजन किया है। इनका प्रयास इन रचनाओं का सम्मिलित संग्रह जल्द प्रकाशित कराने का है।
       पद्य विधा के साथ - साथ यह गद्य विधा में
लघुकथाएं भी लिखती हैं। आसपास होने वाली घटनाओं, शोषित होते ग़रीब लोग जैसी सामाजिक विसंगतियों पर जागृति के लिए ज्यादा लिखती हैं। कथनी और करनी में अंतर रखने वालों की आंखें खोलने को पर्याप्त हैं इनका गद्य लेखन। रचना को पढ़ कर शायद ऐसे व्यक्तियों का हृदय यह स्वीकार कर सके कि गलत तो ग़लत ही है। इस विधा में लगभग 35 लघु कथाएं और 10 कहानियों का लेखन कर चुकी हैं। इनकी एक लघु कथा "संकोच" की बानगी देखिए...........
"राधे! सुनो आज सामने वाले घर में दूध देने जाओ तो दो महिने के पैसे भी ले आना।" रविशंकर जी ने अपने नौकर से कहा ।
"पर बाऊजी.... आपको पता है ना सुशील कुमार जी का देहांत हुए दो महीने भी ना बीते,घर में कोई कमाने वाला नहीं है इस पर मैं दूध का हिसाब माॅंगू मुझे संकोच होता है,अच्छा नहीं लगता।" राधे ने जवाब दिया।
अरे इस जमाने में कौन धर्मात्मा सेठ है पैसे तो लेकर ही आना  वर्ना कल से दूध देना बंद कर दिया जाएगा ......कह देना सुशील जी की पत्नी को। एक दूध ही थोड़ी है घर के दस खर्च भी तो चला रही होगी वो ऐसे किस- किस को पैसे छोड़ेंगे? रविशंकर जी ने रुखाई से बोले ।
 राधे सोच में पड़ गया किस तरह जाकर दूध के पैसे मॉंगू...कोई सहारा नहीं सोचते हुए सुशील जी के घर गया और घंटी बजा दी।
कौन? सुशील जी पत्नी ने पूछा , भाभी मैं राधे।
दूध देकर वो खड़ा रहा सोचने लगा कैसे कहूॅं?
सुशील जी की पत्नी समझ गई उठकर अलमारी से एक अंगूठी लाई और बोली_ "भैया इसे बेचने से जो रूपए आए वो सेठजी को दे देना और कल से दूध मत लाना।"
पर भाभी ये... राधे के शब्द गले में अटक गये।
दरअसल राधे मैं अपने मॉं के यहां जा रही हूॅं वहीं पर कोई नौकरी कर लूंगी। जाने से पहले जिसका भी बकाया है सब चुका कर जाऊॅंगी। अगले शहर में फिर नयी शुरुआत करनी है.....कहती हुई उसकी ऑंखे भर आई।
राधे अंगूठी लेकर चुपचाप लौट गया। 
परिचय :
समसामयिक विषयों, संस्कृति के सामाजिक मूल्यों के संरक्षण और सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध चेतना जगाती रचनाकर योगमाया ' योगी ' का जन्म 1973 में जयपुर में पिता स्व. राधेश्याम मिश्रा एवं माता स्व.लीलावती मिश्रा के आंगन में हुआ। इन्होंने राजनीति विज्ञान में एमए तक शिक्षा प्राप्त कर कंप्यूटरएप्लिकेशन   डिप्लोमा कोर्स किया है। विवाह हो जाने से अर्थशास्त्र में एम ए प्रीवियस कर पढ़ाई बीच में रह गई। अनेक साहित्यिक संस्थाओं और ऑन लाइन साहित्यिक मंचों से जुड़ कर काव्यपाठ में सक्रिय है। साहित्यिक संस्थाओं द्वारा प्रदत्त विषय पर लिखती हैं इनकी रचनाओं को समय -समय पर श्रेष्ठ रचनाओं में शामिल किया जाकर सम्मानित किया जाता है। प्रयास रहता है कि चाहे कम लिखें पर प्रभावोत्पादक, भावपूर्ण और अर्थपूर्ण रचना हो।


साभार :


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