देश के विभिन्न प्रांतों में ग्रामीण और आदिवासी अंचलों में बार-बार पहुँच कर उनके माहौल में साथ रहना, संवाद करना, उनकी जीवनशैली, रहन-सहन, आस्था-विश्वास, धार्मिक परंपराएं, गीत-नृत्य-गायन परम्पराएं, वेशभूषा, खानपान, प्रकृति प्रेम, लोकानुरंजन के माध्यम को लम्बे समय तक देखना, विश्लेषणात्मक दृष्टि से समझना, सर्वेक्षण, मूल्यांकन करना, महसूस करना और लिख कर दस्तावेजीकरण करना आसान नहीं है। भाषा की समस्या, घर का आराम छोडऩा, असुविधाओं का सामना और अजनबियों से तालमेल की दुविधा से दो चार होना पड़ता है। इन अंचलों की संस्कृति को सम्पूर्ण रूप से जानने के लिए बार-बार जाना पड़ता है। लक्ष्य होता है कि संस्कृति का कोई भी पक्ष अछूता न रह जाए। लोक संस्कृति के अध्ययन का यह कार्य जितना कठिन है उतना ही भी श्रमसाध्य है। इसे लोकसंस्कृति मर्मज्ञ डॉ. महेन्द्र भानावत से ज्यादा कौन जान सकता है जिन्होंने इसे किया और जिया है।
** देश की आंचलिक लोकसंस्कृति खास कर जनजातीय संस्कृति पर लिखने वाले गिने-चुने लेखकों में राजस्थान में उदयपुर के ख्यातीनाम साहित्यकार और पत्रकार डॉ. महेन्द्र भानावत ने देश के विभिन्न प्रांतों में भ्रमण कर अथक परिश्रम कर वहां की कलाधर्मी जातियों, लोकानुरंजनकारी प्रवृत्तियों, जनजाति सरोकारों तथा कठपुतली, पड़, कावड़ जैसी विधाओं पर सृजन कर एक सौ से ज्यादा किताबें लिख कर देशव्यापी ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय पहचान खड़ी की है। इनका लोक साहित्य विश्व लोक साहित्य बन गया है। साहित्य वारिधि, लोककला मनीषी, सृजन विभूति, लोकसंस्कृति रत्न, श्रेष्ठ कला आचार्य जैसे सम्मानों, स्वर्ण-रजत पदकों से सम्मानित डॉ. भानावत ने लोकसंस्कृति को स्वयं जा कर न केवल देखा वरन उनके साथ रह कर समझा, महसूस किया और एक सर्वेक्षक के रूप में गहन सर्वेक्षण भी किया है। लोक कलाओं के प्रचार और संरक्षण के लिए कठपुतली जैसी लोककला पर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक प्रशिक्षण शिविर और कार्यशालाएं आयोजित की और देवीलाल सामर के साथ लोकानुरंजन मेलों के आयोजन की परम्परा आरम्भ की।
** राजस्थान में कहानी-कथन की चार शैलियों कथा-कथन, कथा-वाचन, कथा-गायन तथा कथा-नर्तन जैसी शैलियों को लिपिबद्ध कर किताबोंं के रूप में उनका दस्तावेजीकरण भी किया। लोक प्रचलित कहानियों पर डॉ. भानावत बताते हैं कि राजस्थान में कहानी को ‘वात’ नाम से भी जाना जाता है। वात के साथ ‘ख्यात’ नाम भी प्रचलन में है। कुछ जातियों का काम ही कहानियाँ सुनाना रहा है। इन्हें बड़वाजी, रावजी अथवा बारैठजी कहते हैं, जो कहानियाँ सुनाने की एवज में यजमानों से मेहनताना स्वरूप नेग प्राप्त करते है। कहानी का मजा पढऩे में नहीं, उसके सुनने तथा सुनाने में है। सुनाई जाने वाली कहानियाँ ही अधिक रसमय लगती हैं। कहानी चाहे कोई कहता हो, उसका हुंकारा अवश्य दिया जाता है। सुनने वालों में से किसी के द्वारा हुंकारा ‘हूँ’ कहकर दिया जाता है। हुंकारा देनेवाले को ‘हुंकारची’ कहते हैं। हुंकारा कहानी में जान लाता है और उसकी कथन-रफ्तार को बनाए रखता है। अत्यंत अजीबोगरीब तथा मीठी-मजेदार लगनेवाली ये लोककथाएँ निराश जीवन में आशा का संचार करती हैं तो कर्मशील बने रहने के लिए जाग्रत भी करती हैं। ज्ञान का भण्डार भरती हैं तो कल्पनाओं के कल्पतरु बन हमारी उत्सुकता और जिज्ञासा को शंखनाद देकर सवाया बनाती हैं। इन लोककथाओं में हास्य है तो विनोद भी; व्यंग्य है तो रुदन भी; जोश है तो उत्साह भी, सीख है तो उपदेश भी; कर्तव्य के प्रति समर्पण है तो मर-मिटने का जज्बा भी। इनके माध्यम से बच्चे अपनी स्मरणशक्ति, कल्पनाशक्ति और विचारशक्ति का संचयन करते हैं।
** सैकड़ों लोकनृत्य देखने के बाद डॉ. भानावत की मान्यता है कि लोकनृत्य मुख्यत: समूह की रचना हैं। ये सामुदायिक रूप में ही फलते-फूलते एवं फलित होते हैं। कोई कबीला या जाति नृत्य विहीन नहीं है। पूरी प्रकृति लयबद्ध, रागबद्ध, संगीतबद्ध, समूहबद्ध है। सब थिरक रहे हैं। उसमें फिरकनी सी समूहबद्ध अल्हड़ता है। इन्हीं नृत्यों से प्रेरणा पाकर पं. नेहरू ने गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में नृत्योत्सव का शुभारम्भ किया। लोककला-संस्कृति का सर्वाधिक अध्ययन राजस्थान में हुआ है। लोक को हमारे यहां विविध रूपों, रंगों और ढंगों में देखा गया है किंतु भारतीयता के संदर्भ में यह लोक ही हमारे देश की असली पहचान है। यही सच्ची आत्मा और शरीर दोनों है। इस दृष्टि से देश की संपूर्ण प्रदर्शनकारी कलाओं का परीक्षण किया जाए तो हमें लगेगा कि सामुदायिक क्षेत्र में केवल वे ही कलाएं रह गई हैं जो संस्कारों, आस्थाओं, परंपराओं और अनुष्ठानों के साथ जुड़ी हैं। लोकजीवन का अध्ययन पुरातत्व, इतिहास, राजनीति, धर्म, दर्शन, अर्थ, समाज, नाट्य, नृतत्व आदि को सांचों-सीखचों में बांट कर नहीं देखता। हमने बहुत सारी चीजें बांट रखी हैं। उनका सोच है कि राजस्थान में लोककलाओं की एक अकादमी या एक विश्वविद्यालय ही होना चाहिए।
** लोक संस्कृति के प्रचार प्रसार के लिए लोककला, रंगायन, ट्राइब, रंगयोग, पर्यटन दिग्दर्शन, पीछोला, सुलगते प्रश्न जैसी शोध पत्रिकाओं का संपादन करने के साथ ही इन्होंने कई समाचार-पत्रों में स्तंभकार के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। देश की 500 से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में इनके दस हजार से अधिक आलेख छप चुके हैं। राजस्थान की संगीत नाटक अकादमी, राजस्थानी साहित्य भाषा, साहित्य संस्कृति अकादमी, जवाहर कला केंद्र, पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र के सदस्य एवं फेलो रह चुके हैं।
** साहित्यिक प्रकाशन :
जीवन के 6 दशकों में लिखी गई 100 से ज्यादा पुस्तकों में करीब एक दर्जन से अधिक पुस्तकें आदिवासी जीवन-संस्कृति पर लिखी। इस दृष्टि से राजस्थान के अलावा गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश तथा तमिलनाडु की खोज यात्राएं महत्वपूर्ण रहीं। राजस्थानी के लोकदेवता तेजाजी, पाबूजी, देवनारायण, ताखा-अम्बाव, काला-गोरा, राजस्थान के लोकदेवी-देवता तथा भीली लोकनाट्य गवरी पर स्वतंत्र पुस्तकें प्रकाशित हुई। बालसाहित्य की आधा दर्जन पुस्तकें भी आई। मेंहदी पर ‘मेंहदी राचणी’, मांडणों पर ‘मरवण मांडे मांडणा’ तथा लोकगीतों पर ‘काजल भरियो कूंपलो’ एवं ‘मोरिया आछो बोल्यो’ का पर्यटन साहित्य के रूप में प्रकाशन हुआ। पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र, उदयपुर से ‘राजस्थान के लोकनृत्य’, ‘गुजरात के लोकनृत्य’ तथा ‘महाराष्ट्र के लोकनृत्य’, देवस्थान विभाग राजस्थान, उदयपुर से ‘राजस्थान के लोकदेवी-देवता’ , आदिवासी लोककला परिषद, भोपाल द्वारा ‘पाबूजी की पड़’ तथा ‘पांडवों का भारत,’ जवाहर कला केन्द्र, जयपुर द्वारा ‘लोककलाओं का आजादीकरण’, ट्राईबल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, उदयपुर द्वारा ‘उदयपुर के आदिवासी’ तथा ‘कुंवारे देश के आदिवासी’ तथा ‘जनजातियों के धार्मिक सरोकार’, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा राजस्थानी में ‘कविराव मोहनसिंह’, नारायण सेवा संस्थान, उदयपुर द्वारा ‘मसखरी’, हिन्दी ग्रंथ अकादमी जयपुर द्वारा ‘भारतीय लोकमाध्यम’ और अंतर्राष्ट्रीय प्राकृत रिचर्स एवं शोध संस्थान, चैन्नई द्वारा ‘जैन लोक का पारदर्शी मन’ डॉ. भानावत की उल्लेेखनीय कृतियां हैं।
** भारतीय नाट्य संघ, नई दिल्ली द्वारा प्रदत्त प्रोजेक्ट के अंतर्गत राजस्थान के लोकनाट्य विषयक शोधाध्ययन एवं रिपोर्ट लेखन, मणिपुर एवं त्रिपुरा की आदिवासी जीवन-संस्कृति का सर्वेक्षण-अध्ययन एवं रिपोर्ट लेखन, डॉ. मोतीलाल मेनारिया के निर्देशन में महाराणा जवानसिंह लिखित पदों का चार हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर पाठ संपादन कर ‘ब्रजराज-काव्य-माधुरी’ नाम से पुस्तक प्रकाशन, भारतीय लोककला मंडल, उदयपुर में निदेशक के दौरान- विविध लोकधर्मी कला-विधाओं पर करीब दो दर्जन पुस्तकों का प्रकाशन अन्य साहित्यिक उपलब्धियां इनकी झोली में हैं। इनकी पहली पुस्तक ‘राजस्थान स्वर लहरी’ भाग एक थी जबकि इसी क्रम में भाग दो तथा भाग तीन का संपादन अभी भी अप्रकाशित है। अनेक पुस्तकों का डॉ. भानावत ने संपादन भी किया है। विभिन्न पाठ्यक्रमों के किया पाठ लेखन का अवसर भी इन्हें मिला।
** साहित्यिक- सांस्कृतिक सेवाएं :
भारतीय लोककला मण्डल, उदयपुर में शोध सहायक 1958-62 के दौरान राजस्थान के विभिन्न अंचलों के विविध पक्षीय लोककलाकारों के बेदला गांव में पन्द्रह-पन्द्रह दिन के चार प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन-संयोजन किया। उस समय इस प्रकार का यह संभवत: विश्व का पहला शिविर था। यहीं नागौर जिले के जीजोट गांव के नाथू भाट के कठपुतली दल को चिन्हित कर कलामण्डल में उसकी कला-कारीगरी का बारीकी से अध्ययन किया गया तथा परंपरागत अमरसिंह राठौड़ खेल की ही भावभूमि में कलामण्डल के कलाकारों द्वारा ‘मुगल दरबार’ नामक खेल की रचनाकर नवीन परिवेश दिया गया। इसी कठपुतली खेल को रुमानिया में 1965 में आयोजित तृतीय अंतर्राष्ट्रीय कठपुतली समारोह में सरकार ने भारतीय प्रतिनिधि के रूप में प्रदर्शन के लिए भेजा जहां कलामंडल के दल को विश्व का सर्वोच्च प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। लोककला संग्रहालय की स्थापना एवं परिकल्पना सम्बन्धी सामग्री एकत्रीकरण तथा विविध विधाओं का संग्रह-प्रकाशन, समय-समय पर राष्ट्रीय लोककला संगोष्ठियों के आयोजन में ख्यात विद्वानों के आलेखों पर ‘लोककला : मूल्य और संदर्भ’ तथा ‘लोककला : प्रयोग और प्रस्तुति’ नामक दो पुस्तकों का संपादन-प्रकाशन डॉ. भानावत की विशिष्ट देन है। इसके अलावा कठपुतली कला पर राजस्थान के अध्यापकों एवं देश-विदेश के लोगों को विविध शैलियों में प्रशिक्षण-संयोजन, यूनीसेफ द्वारा प्रदत्त प्रोजेक्ट के तहत कठपुतली कला विषयक प्रशिक्षण, नाट्य-लेखन, मंचन एवं प्रकाशन तथा अखिल भारतीय कठपुतली समारोहों के आयोजन कर डॉ. भानावत ने पूरे देश के लोकविज्ञों का ध्यान आकर्षित किया है।
** विशिष्ट व्याख्यान :
‘भक्तिकाल में मीरांबाई का स्थान’, आदिवासी परम्परा, परिवेश एवं चुनौतियां’ ‘भारतीय कला जगत पर राजस्थानी लोककलाओं का प्रभाव’, ‘राजस्थान के लोकगीतों में वसुधैव कुटुम्बकम का भाव-बोध’ , ‘मीरांबाई : नवीन खोज-दृष्टि’, ‘राजस्थान का रंगधर्मी वैविध्य’, ‘मांडणी कला’, ‘आदिवासी जीवनधारा और चुनौतियां’ विषय पर विशेष वक्तव्य, ‘आदिवासी जीवन संस्कृति के रखरखाव, एवं ‘सांस्कृतिक उन्नयन और लोकधारा’ आदि विषयों पर देशभर में आयोजित गोष्ठियों में शोध आलेखों का वाचन, व्याख्यान और प्रस्तुतिकरण करने की कला में डॉ. भानावत सर्वथा अतुलनीय ही हैं।
** गौरव के पल :
एक साहित्यकार के लिए इससे बढक़र गौरव क्या होगा कि लोकसाहित्य-
संस्कृति-कला के अछूते एवं अज्ञात विषयों पर सर्वाधिक लेखन एवं प्रकाशन के फलस्वरूप 50 से अधिक शोध-छात्रों ने पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की। देश-विदेश के एक हजार से अधिक व्यक्तियों को शोध-विषयों से संदर्भित मार्गदर्शन दिया। विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा प्रस्तुत शोधप्रबन्धों का मूल्यांकन एवं मौखिकी-परीक्षण करने का आपको मौका मिला। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केंद्रों से गत 40 वर्षों से साहित्य एवं लोकधर्मी विविध विधाओं पर आलेख, संस्मरण, परिचर्चा तथा काव्यपाठ का प्रसारण आपकी अन्यतम उपलब्धि है।
** सम्मान एवं पुरस्कार :
लोक संस्कृति और साहित्य लेखन के लिए देश भर की अकादमियों, संस्थाओं, सरकारी और निजी प्रतिष्ठित संस्थाओं द्वारा आपको लगभग 6 दर्जन पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा लोक साहित्य संस्कृति- कला विषयक योगदान हेतु 51 हजार रूपये का विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा भारतीय लोकसाहित्य संस्कृति-कला विषयक योगदान हेतु 2.50 लाख रूपये का लोकभूषण पुरस्कार, जोधपुर स्थापना दिवस 2022 पर पूर्व महाराजा गजसिंह द्वारा 51 हजार रूपये का मारवाड़ रत्न कोमल कोठारी पुरस्कार, संत मुरारी बापू द्वारा प्रतिस्थापित 51 हजार रूपये का श्री काग लोक साहित्य सम्मान, पश्चिम क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र, उदयुपर द्वारा शिल्पग्राम उत्सव के उद्घाटन पर दो लाख पच्चीस हजार रूपये का ‘डॉ. कोमल कोठारी लोककला पुरस्कार’, कोलकाता के विचार मंच द्वारा 51 हजार रूपये का ‘कन्हैयालाल सेठिया पुरस्कार’ सहित विभिन्न संस्थाओं द्वारा बोधि सम्मान, कला समय लोकशिखर सम्मान’, पं. रामनरेश त्रिपाठी नामित पुरस्कार’, ‘महाराणा सज्जनसिंह पुरस्कार’, ‘स्वर्ण पदक’, ‘साहित्य वारिधि’ कला रत्न, विभूषण सम्मान, ‘लोककला मनीषी अलंकरण’, ‘सृजन विभूति सम्मान’, ‘लोकसंस्कृति रत्न अलंकरण’, ‘श्रेष्ठ कला आचार्य अलंकरण’, ‘लोककला सुमेरु’ जैसे सम्मान एवं अलंकरण पाने वाले डॉ. भानावत एकमात्र अकेले ही हैं।
** परिचय :
प्रसिद्ध साहित्यकार और लोक संस्कृति मर्मज्ञ डॉ. महेंद्र भानावत का जन्म राजस्थान में उदयपुर जिले के कानोड़ कस्बे में 13 नवम्बर 1937 को पिता स्व. प्रतापमल भानावत और माता स्व. डेलू बाई के आंगन में हुआ। आपने हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर और ‘राजस्थानी लोकनाट्य परम्परा में मेवाड़ का गवरीनाट्य और उसका साहित्य’ विषय पर पीएच.डी. की शिक्षा प्राप्त की। आपके तीन संतानें एक पुत्र डॉ. तुक्तक भानावत और दो पुत्रियां डॉ. कविता मेहता एवं डॉ. कहानी भानावत (मेहता) हैं। बचपन में ही पिता का साया सर से उठ गया। आर्थिक विपन्नता इतनी थी कि गांव वाले तो क्या रिश्तेदार तक रुख नहीं मिलाते थे। मां ने हिम्मत नहीं हारी और हौंसला बनाए रखते हुए इन्हें और इनके बड़े भाई नरेन्द्र भानावत ने दोनों को पढ़ाया। मां कभी किसी के आगे झुकी नहीं और अपना स्वाभिमान बनाए रखा। इन्हीं गुणों को साथ लेकर डॉ. भानावत ने जैसे तैसे स्नातक कर उदयपुर में आजीविका के लिए काम ढूंढते बड़ी मुश्किल से भारतीय लोककला मण्डल में अवसर पाया। संस्था के संचालक देवीलाल सामर ने इनके गुणों को पहचान इन्हें योग्य से योग्यतर बनने के अनेक अवसर प्रदान किये। यहां भी कई परिस्थियों से गुजरने के बाद डॉ. भानावत अपना स्थान बना पाए।
समय गुजरता गया गांव वाले और रिश्तेदार भी पूछने लगे। बचपन में गांव के पोस्ट ऑफिस में जाकर डाक में आई पत्र- पत्रिकाएं पोस्टमैन के सहयोग से पढऩे लिखने और छपने की प्रेरणा पाई। बड़े भाई कविताएं लिखते थे और जब गर्मियों की छुट्टी में घर आते थे, वे सबको कविता सुनाते थे। यहीं से कविता सुनने और लिखने का बीजारोपण हुआ और चौथी कक्षा में पहली कविता लिखी। स्कूल की बाल सभाओं में कविता पढ़ते थे। उस समय के पत्र-पत्रिका में कविता छपने से हौंसला बढ़ा। कवि रूप में पहचान बनी। जीवन के उत्तराद्र्ध में अपने पुत्र डॉ. तुक्तक भानावत के सहयोग से पाक्षिक समाचारपत्र ‘शब्दरंजन’ की शुरूआत की और कई साहित्य एवं कला-संस्थानों में सदस्य के रूप में अपनी सक्रियता दिखाई। उम्र के लंबे पड़ाव पर आज भी डॉ. भानावत लेखन, शोध निर्देशन और पत्रकारिता में पूर्ण सक्रिय हैं।