देश के प्रधानमंत्री जब लाल किले की प्राचीर से कहते हैं खुले में शौच एक बड़ी समस्या है, इसके लिए सबको जागरूक बनना होगा, अपने घरों में शौचालय बनवाने होगे ।" उस समय सुनने वालों को अजीब लगा भला यह बात भी स्वतंत्रता दिवस पर कहने की है, पर गंभीता से सोचें तो देशवासियों के चेतन करने के लिए इससे उपयुक्त मंच क्या हो सकता है?
महात्मा गांधी ने छुआछूत की वृति के विरुद्ध चेतना जगाई। कम उम्र में बच्चों का विवाह नहीं करने के प्रति समझ पैदा करने में सालों लग गए। हर उद्यान में लिखा होता है फूल तोड़ना मना है पर बच्चें क्या बड़े तक फूल तोड़ते मिल जाते हैं। दीवारों पर लिखा होता है यहां पेशाब करना मना है लोग वहां ऐसा करते देखे जाते हैं। वाहन चलाते समय मोबाइल पर बात नहीं करें, हेलमेट लगाए, सीट बेल्ट बांध कर रखे, भीड़भाड़ वाली जगह तेज गति से वाहन नहीं चलाए, शराब पी कर वाहन नहीं चलाए । हमारी चेतना है कि नियमों के विपरीत काम करती है। हम है कि पौधे लगा कर फोटो छपा कर पर्यावरण प्रेमी होने का दंभ भरते हैं, लगा कर भूल जाते हैं, पीछे मुड़ कर देखते भी नहीं कि पौधा जिंदा भी है या नहीं। रक्तदान महादान सभी कहते हैं पर रक्त देने के लिए आगे नहीं आते और जब अपनों के लिए जरूरत पड़ती हैं तो इधर उधर भागते हैं। इस नागरिक चेतना- समझ को विकसित करने के लिए सरकारों को वृक्षारोपण, जल संरक्षण, स्वच्छता, साक्षरता, बाल विवाह की रोकथाम, बच्चों को बीमारियों से बचाव के लिए टीकाकरण, यातायात नियमों की पालना, नशामुक्ति आदि कई प्रकार के जनजागरण अभियान चलाने पड़ते हैं। हमारी इसी नासमझी की वजह से अभियानों पर हर वर्ष करोड़ों रुपया खर्च हो जाता है। हम हैं कि अपनी चेतना को जागृत करने को तैयार ही नहीं। हमारी चेतना सुषुप्त पड़ी रहती है और हम बड़ी आसानी से कह देते हैं, ये तो सरकारी कार्यक्रम हैं। यह कथन समझ के स्तर पर हमारे दिवालियेपन का प्रतीक नहीं तो और क्या है ?
इन सब के बावजूद सिक्के का दूसरा पहलू देखें तो का चेतना का विकास, प्रयास और परिणाम दिखाई भी देते हैं। घरों के बाहर और छतों पर पौधों की हरियाली लोगों के पौधों के प्रति उनके प्रेम को दर्शाती है। अनेक वाहन चालक यातायात नियमों का पालन करते हैं। वर्षा जल संरक्षण के उपाय में और स्वच्छता में आगे आए हैं। कई गृहणियां स्वयं अपने घर के बाहर सुबह - सुबह झाड़ू लगाती नजर आती हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं और समाजसेवियों द्वारा आयोजित रक्तदान कार्यक्रम में कई लोग स्वेच्छा से रक्तदान करते हैं। अंतर्जातीय विवाह का प्रचलन चल पड़ने से जाती प्रथा पर प्रहार हुआ है। छुआछूत का बोलबाला भी कम हुआ है। निरक्षरों में शिक्षित होने की समझ बढ़ी है। दिव्यांगो के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव आया है। छोटा परिवार दुखी परिवार की भावना बलवती हुई है। लैंगिक समानता की भावना का उदय होने से आज लड़कियों के प्रति समाज का सोच बदला है, भ्रूण हत्या पर काफी हद तक नियंत्रण हुआ है। बाल विवाहों में तेजी से कमी आई है। चेतना जागृति का ही परिणाम है कि हर क्षेत्र में लड़कियां आगे बढ़ रही हैं और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर कदमताल कर रही है। नारी शक्ति का नया उदय प्रत्यक्ष है।
इतना होने पर भी हमारी चेतना और समझ का स्तर काफी नीचे के पायदान पर है। इसी चेतना को जगाने के उद्देश्य ध्यान में रखते हुए 2018 में लेखिका डॉ. कृष्णा कुमारी की कृति " नागरिक चेतना " निबंध के रूप में आई थी। कुछ दिन पूर्व एक समारोह यह पुस्तक मेरे हाथ लगी। पढ़ा तो उक्त सभी प्रसंग मेरे दिमाग में घूम गए। यह निबंध नागरिक चेतना के संबंध में वर्तमान पर ही बातें नहीं करता वरन वैदिक, रामायण, महाभारत, पूर्व काल की नागरिक चेतना पर भी प्रकाश डालता है। साथ ही नागरिक चेतना के माध्यम और परिणामों को भी बताता है।
अपनी भूमिका " इतना ही कहना है" में लेखिका लिखती हैं, " सब से बड़ी बात कि इस कृति में लिखी गई बातों की अनुपालना करने का मैं स्वयं पूरा प्रयास करती हूँ या यूँ मानिये कि मुझे बहुत पहले से ही अपने कर्तव्यों के निर्वहन करने की आदत रही है। ऐसा करने से मुझे जहाँ आत्मसंतुष्टि मिलती है, वहीं खुद पर गर्व भी होता है, क्योंकि दुनिया को नहीं खुद को बदलना महत्वपूर्ण है। जिन बातों को हम आचरण में लाते हैं उन में अभूतपूर्व असर देखा जा सकता है और दूसरे व्यक्ति अनुगमन करने को स्वतः ही प्रेरित होने लगते हैं। अपने व्यवहार में अपनाई गई कुछ बातें बताना यहाँ प्रासंगिक होगी... जैसे मैं ट्रेन में तब ही चढ़ती हूँ, जब सब यात्री उतर जाते हैं। एक भी फूल-पत्ती तब तक नहीं तोड़ती जब तक अति आवश्यक नहीं हो। आधा इंच कचरा भी कूड़ेदान में डालती हूँ। चाहे उसे हजारों कि.मी. की यात्रा के दौरान पर्स में ढोना पड़े। हमारे घर के सभी सदस्य सड़कों पर 'यू-टर्न' का प्रयोग करते हैं एवं सभी नियमों की अनुपालना करते हैं।" ( पृष्ठ 10 )
निबंध का प्रारंभ " नागरिक चेतना" अध्याय से करते हुए नागरिक चेतना में सामाजिक, नैतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक संदर्भ निहित मानते हुए विभिन्न क्षेत्रों में सौदाहरण इसका महत्व प्रतिपादित किया गया है। वे लिखती हैं," प्रकृति हमारी सहचरी है, पालिका है, पोषिका है, जन्मदात्री है। यह भाव बचपन से ही बालक के मन में जाग्रत होना आवश्यक है। उसका परिवेश ऐसा हो कि वह स्वतः ही प्रकृति-प्रेम की ओर उन्मुख हो जाए। ऐसा परिवेश उसे परिवार, पाठशाला, समाज, प्रदान कर सकता है। आज जरूरत है शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन करके, पाठ्यक्रम में वेदों के ज्ञान का शामिल होना जरूरी है। बच्चे को जन्म से ही प्रकृति प्रेम को, घुट्टी की तरह पिला देना चाहिए, तभी वह पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे सकेगा, तभी पृथ्वी बच सकेगी, सम्पूर्ण चर-अचर जगत निर्विघ्न गतिशील रह पाएगा। जब बालक प्रकृति की महत्ता को आत्मसात् करेगा तो वह किसी भी हाल में प्रकृति को हानि नहीं पहुँचाएगा। उसे ज्ञात होना चाहिए कि जिस प्राण-वायु पर उसका जीवन चल रहा है, जिसे वह श्वास द्वारा ग्रहण कर रहा है, वह प्रकृति की ही देन है, तब भला वह पर्यावरण विरोधी कार्य कैसे कर सकेगा ? वह तो उसे और-और संरक्षण प्रदान करने की कोशिश करेगा। " ( पृष्ठ 17)
वैदिक समय के चारों वेदों में नागरिक चेतना की अनेक प्रेरक प्रसंग और संदर्भ देखने को मिलते हैं। शिक्षा के महत्व की दृष्टि से मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुषी महिलाएं पुरुषों के साथ शास्त्रार्थ में भाग लेती थीं। पर्यावरण प्रेम और संरक्षण चरम पर था। यज्ञ की सामग्री से पर्यावरण शुद्ध होता है वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं। महिलाओं को एक फूल तोड़ते की भी इजाजत लेनी पड़ती थी। वृद्धि और वनस्पतियों की पूजा की जाती थी। नदियों को जीवनदायिनी माना जाता था। जल संरक्षण के महत्व के कई सूक्तक, दोहे वेदों में मिलते हैं। इस संदर्भ में प्रासंगिक एक दोहा देखिए........
जल जीवन, जल प्राण है, जल जगती की जान।
जीना है तो कीजिए, जल-धन का सम्मान।।
पवित्रता और अध्यात्म के नियमों का पालन किया जाता था। आहार - विचार - व्यवहार सभी कुछ संतुलित था। सभी प्राणियों के प्रति मैत्री भाव था। वेदों के आख्यान समाज को शिक्षित कर बताते थे मनुष्य का आचरण कैसा हो? ( पृष्ठ 22 से 27 )
रामायण काल में चेतना का समुचित विकसित रूप सामने आता है। कुछ अपवादों को छोड़ कर वचन का पालन, आज्ञपालन, भ्रातत्व प्रेम, राक्षसों का संहार कर धर्म की रक्षा गुरुकुल में शिक्षा, प्रकृति प्रेम, पर्यावरण का महत्व, जीवन में आचरण का महत्व , राजा द्वारा प्रजा हित सर्वोपरि आदि चेतनाएं महान ग्रंथ रामायण में कई प्रसंगों के साथ दिखाई देती है। शबरी के बेर जब राम बड़े चाव से खाते हैं तो जातपात का भेद कहां रह जाता है।
वनवास के समय सीता अपनी कुटिया में फुलवारी लगाती हैं, पौधों को पानी पिलाते समय उनसे बातें करती हैं। पवन-पुत्र हनुमान द्वारा अशोक वाटिका उजाड़ने पर रक्षकों द्वारा उन्हें इसी अपराध वश बन्धक बनाकर रावण के समक्ष पेश किया जाता है। जाहिर है, पर्यावरण को हानि पहुँचाना उस समय बहुत बड़ा अपराध था। पर्यावरण की दृष्टि से रामायण काल में नागरिक चेतना शीर्ष पर थी। तुलसीदास ने तो एक ही चौपाई में पर्यावरण-समस्या का हल प्रस्तुत कर लिखा है......
आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल-थल-नभ वासी ।।
सीय-राम मय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जेरि जुग पाणी ।।
जहाँ समस्त चराचर जगत के प्रति ऐसी महानुभूति हो, भला वहाँ कोई समस्या उत्पन्न ही कैसे हो सकती है? पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, सजीव-निर्जीव, सभी में प्रभु की छवि देखना, सबसे ईश्वर सम प्रेम करना,कितना बड़ा दर्शन है। ( पृष्ठ 27 से 31)
महाभारत के समय द्वापर युग के महान ग्रंथ गीता में तो नागरिक चेतना का भाव संपूर्णता के साथ समाहित है। "निष्काम कर्म" की एक ही शिक्षा नागरिक आचरण और व्यवहार का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। पूर्व काल में महावीर स्वामी स्वयं पर्यावरणविद् थे। उन्होंने जीव जगत के साथ-साथ पुद्गल जगत से भी अनुभूति स्थापित की। इसी के समानांतर समस्त मानव जाति, वायु, अग्नि, पेड-पौधे, पशु-पक्षी, जल, हवा, वनस्पति आदि चेतना सम्पन्न हैं। इन में सामान्य रूप से प्राण, स्पंदन है। इन को नकारने का अर्थ है स्वयं के अस्तित्व को नकारना। अतः इस सब के साथ संयत व्यवहार करो, दुरुपयोग से बचो, ये उनका संदेश है, मानव जाति के लिए।
महात्मा बुद्ध ने भी बोधि वृक्ष के नीचे ही ज्ञान प्राप्ति की थी। सम्राट अशोक ने भी मार्गों के दोनों ओर पेड़ लगवाए थे। अशोक वृक्ष को तो बहुत सौभाग्य सूचक ही माना गया है। हमारे प्राचीन इतिहास में पर्यावरण प्रेम और चेतना के एक संदर्भ भरे हुए हैं।
चोल राजा परिवल्लाल को भी प्रकृति से अनन्य प्रेम था। जंगल में उनके रथ के पहिये से एक बेल उलझ गई... तो उन्होंने रथ रुकवाया ताकि बेल नहीं टूटे और वो पैदल लौट आये। उन्होंने सारथी से कहा कि वृक्ष, फूल, लताएँ आदि ईश्वर के अंश हैं, जीवन देने वाली सम्पत्ति है। इसका संरक्षण प्रत्येक राजा का कर्त्तव्य है। महत्त्वपूर्ण बात ये है कि परिवल्लाल का पर्यावरण प्रेम, कर्त्तव्य परायणता, संस्कार हमें सोचने की नई दिशा देते हैं।
प्राचीन संस्कृत साहित्य के महाकवि कालिदास के काव्य में प्रकृति का सुरम्य, मनोहारी चित्रण हुआ है। कुमारसम्भव, मेघदूत, अभिज्ञानशाकुंतलम में प्रकृति एवं मानव के अन्तरंग सम्बन्धों की हृदयस्पर्शी भावाभिव्यक्ति । सूफी कवि जायसी के पद्मावत में भी पर्यावरण चेतना और कुदरत के नाना स्वरूपों का विशद वर्णन उल्लेखनीय है। सूरदास के काव्य में पर्यावरण चेतना, के साथ वन-उपवन, कुञ्ज, कालिंदी-कूल, गोवर्धन पर्वत, कदम्ब करील, वृक्ष, पुष्प, पशु-पक्षी का अद्भुत अंकन देखते ही बनता है। ( पृष्ठ 32)
नागरिक चेतना की वर्तमान स्थिति के संदर्भ में समीक्षा के प्रारंभिक दो पेरे में मेरे उद्गार कई अर्थों में लेखिका के विचारों से इत्तफाक रखते हैं। वैसे इस प्रसंग में लेखिका ने समय की बरबादी, घरों में अनावश्यक बिजली का उपयोग, घर का कूड़ा करकट सड़क पर डाल देना, चप्पलें रसोई तक ले जाना, प्रकृति के उपादानों का बेदर्दी से उपयोग, परीक्षा के दिनों में नियत समय के बाद ऊंची आवाज़ में ध्वनि विस्तारण यंत्रों का उपयोग, विवाह या अन्य समारोहों के लिए सड़क पर टेंट लगा देना, पार्क में खेलना मना होने पर खेलना, मर्जी आए वहीं यात्री परिवहन वाहन रोक देना, धुआं छोड़ने वाले वाहन चला कर प्रदूषण फैलाना आदि कई अनेक उदाहरणों से नागरिक चेतना के हालातों पर कटाक्ष कर सावचेत करते हुए निबंध के अगले चरण में इनके प्रयास और परिणामों पर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। ( पृष्ठ 63 - 83 )
निबंध को 86 पृष्ठ में समेटते हुए उपसंहार में लिखती हैं, " दरअस्ल, नसीहत तो ऐसी चीज़ है जिसे दूसरा व्यक्ति सुनना तक नहीं चाहता है, अमल करना तो बहुत दूर की बात है। काश! हम जो नसीहत दूसरों को यदा-कदा या अक्सर देते रहते हैं, उन पर थोड़ा-सा अमल ख़ुद भी कर लें तो ये दुनिया कितनी खूबसूरत बन सकती है? इसका अन्दाजा आप सिर्फ़ स्वर्ग की परिकल्पना से तुलना करके ही कर सकते हैं। जैसे बूंद-बूंद से घड़ा भरता है, उसी प्रकार एक-एक मनुष्य द्वारा अपनी जिम्मदारी निभाने से स्वस्थ समाज के निर्माण की प्रक्रिया निरन्तर बलवती होती जाती है। यदि हम एक बेहतर, खूबसूरत दुनिया देखना चाहते हैं तो हमें अपने नागरिक दायित्वों को भलीभाँति समझना एवं निभाना होगा।" ( पृष्ठ 86 )। यह निबंध कृति यूं तो हर वर्ग के लिए है परन्तु उदयीमान पीढ़ी के लिए एक अच्छी मार्गदर्शक है। ऐसी किताबों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना बहुत उपयोगी होगा।