हाड़ौती दर्शन (पर्यटन के साथ इतिहास के शोधार्थियों के लिए आवश्यक पुस्तक)

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Published on : 23 Jun, 25 02:06

समीक्षक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल लेखक एवं पत्रकार, कोटा मो. 9938076040

हाड़ौती दर्शन  (पर्यटन के साथ इतिहास के शोधार्थियों के लिए आवश्यक पुस्तक)

" भारतीय संस्कृति और इतिहास में आंचलिक इतिहास का बड़ा योगदान है। आंचलिक इतिहास के लेखन से ही प्रदेश और देश का इतिहास, धर्म, संस्कृति और पर्यटन समृद्ध होता है। प्रस्तुत पुस्तक में हाड़ौती अंचल के भारत प्रसद्धि मन्दिरों, राजाओं के गौरवशाली इतिहास, आंचलिक मूर्तिकला और चित्रांकन परम्परा व अनेक दर्शनीय पर्यटन स्थलों की जिस प्रकार विस्तृत प्रमाणिक और सारगर्भित जानकारी दी गई है वह अत्यन्त महत्व की है जो भविष्य में शोधार्थी वर्ग और यहाँ आने वाले प्रत्येक पर्यटकों के लिए अत्यन्त प्रेरणास्पद रहेगी "। राजस्थान के शिक्षा मंत्री श्री मदन दिलावर के इस संदेश के साथ प्रारंभ हुई " हाड़ौती दर्शन " पुस्तक निश्चित ही झालावाड़ निवासी इतिहासकार श्री ललित शर्मा की एक ऐसी पुस्तक है जो पर्यटकों और पाठकों को समग्र रूप से हाड़ौती के इतिहास और समस्त पर्यटक स्थलों की जानकारी एक ही जगह उपलब्ध कराती है। 
    हाड़ौती अंचल के कोटा, बारां, बूंदी और झालावाड़ जिलों के ज्ञात और अज्ञात पुरातत्व स्थलों किले, मंदिरों,  छतरियों, बावड़ियों, महलों आदि को सघन रूप से  भ्रमण कर प्रथम दृष्टया स्वयं देख कर अध्ययन कर, संदर्भ सामग्री का उपयोग कर एवं जानकार विद्वानों के साक्षात्कार के साथ तथ्यात्मक एवं प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत किया गया है। तथ्यों को पुष्ट करने के लिए अभिलेखों, सिक्कों, मोहरों, मूर्तियों एवं अन्य सामग्री का गहन अध्ययन किया है। पुरातत्व और कला में शोध करने के इच्छुक शोधार्थियों के लिए यह अनिवार्य रूप से संदर्भ किताब साबित होगी। 
     पुरातत्व स्थल शोध के साथ - साथ अपनी समकालीन स्थापत्य कला, मूर्ति कला और महत्व की दृष्टि पर महत्वपूर्ण पर्यटक स्थल भी हैं। ये स्मारक पर्यटकों को अपने समय की कला और संस्कृति से भी अवगत करवाने का बड़ा माध्यम हैं। यहां के स्मारकों पर पड़ोसी मालवा संस्कृति के प्रभाव को भी रेखांकित किया गया है। साथ ही आज़ादी के बाद वर्तमान समय तक समय - समय पर विकसित हुए नए पर्यटक स्थलों की जानकारी को भी रोचकता के साथ लिखा गया है। कोटा में हाल ही में नव विकसित चंबल रिवर फ्रंट तक के पर्यटक स्थल शामिल हैं।
          प्रथम अध्याय में हाड़ौती - एक परिचय में ऐतिहासिक जानकारी के साथ - साथ सामान्य भौगोलिक परिचय भी दिया गया है। 
" कोटा के पुरातत्व संग्रहालय में दो मोहरें रखी हुई हैं। इसमें से एक 1860 ई. की है, जिस पर इस प्रकार लिखा है। 'मोहर ऐजेन्सी हाड़ौती सन् 1860' एवं दूसरी मोहर सन् 1929 ई. की है जिस पर इस प्रकार लिखा हुआ है। "मोहर कचहरी एजेन्ट हाड़ौती ऑफ तरफ गवर्नर जनरल नाजिम आजम मुमालिका महकमा सरकार दौलत मदार अंग्रेज बहादुर कं. 1929 सन।" ( पृष्ठ 19 ) आगे इसी पृष्ठ पर लिखते हैं,
" इन दोनों ऐतिहासिक मोहरों से शान सुविधा हेतु हाड़ौती शब्द को गढ़ लेने की बात उचित प्रतीत होती है। इस प्रकार बूँदी और उसका निकटवर्ती प्रदेश (कोटा सहित) दीर्घ अवधि तक हाड़ा राजवंश द्वारा शासित होने से 'हाड़ौती' के नाम से प्रसिद्ध रहा है। बूँदी राज्य से कोटा राज्य का उद्भव हुआ हैं जिसमें बाराँ क्षेत्र भी काफी समय तक सम्मिलित रहा। कोटा राज्य से ही 19वीं सदी में (1838 ई.) में झालावाड़ राज्य का उद्भव हुआ।"
     द्वितीय अध्याय में " बूंदी जिले में ऐतिहासिक पर्यटन स्थल " में बूंदी के इतिहास की तथ्यात्मक जानकारी के साथ - साथ तारागढ़ , राजप्रासाद, सूर्य छतरी, मयूर छतरी, जैतसागर तालाब, नवल सागर, हाजा घोड़ा, शिवप्रसाद हाथी, रानी जी की बावड़ी, चारभुजा मंदिर, लक्ष्मीनाथ मंदिर, केदारनाथ मंदिर, नागर सागर कुंड, शिकार बुर्ज, कनक सागर, मीर साहब की दरगाह, खूबसूरत झरने( भीमलत और रामेश्वर ), फूल सागर, केशरबाग, रामगढ़ विषधारी अभयारण्य,चौरासी खंभों की छतरी, राजकीय संग्रहालय ( मूर्ति , चित्रकला, अस्त्र शास्त्र दीर्घाएं ), रत्नादेवी मंदिर, बीजासन माता इंदरगढ़, किला इंदरगढ़, दुगारी का कला वैभव, कमलेश्वर मंदिर ( क्वालजी ) इंदरगढ़, केशवराय पाटन मंदिर, जम्बूमारेश्वर शिव मंदिर और मुनि सुब्रतनाथ स्वामी मंदिर के बारे में विस्तृत जानकारी से अवगत कराया गया है।( पृष्ठ 21 से 51 ) 
   बूंदी चित्रशाला के चित्र पूरी दुनिया में प्रसिद्ध हैं। " रंग विलास उद्यान से ऊपर की ओर चित्रशाला स्थित है। इसमें चार बड़े कमरों व चार बरामदों वाली इस चित्रशाला की हर दीवार और कोना बूँदी की विश्व प्रसिद्ध कला का जीवन्त उदाहरण है। लाल, सुनहरे और नील वर्णीय रंग की यहाँ की बेमिसाल चित्रकला की आदर्श थाती को अपने में संजोएँ इस चित्रशाला के भवन बूँदी नरेश शत्रुशाल ने बनवाए थे। इन महलों में राधा कृष्ण की उदात्त प्रेमलीला, रागमाला और रासलीलाओं से सजाया गया है। बूँदी शैली के इन चित्रों की रेखाएँ अति कोमल लावण्यमयी और गतिशील है। इनमें भाव विविधा छिपी हुई हैं इन्हें निकालकर इनके रस वैभव का आस्वादन करना कला प्रेमियों के लिये भी एक कला है। बूँदी की इस चित्रकला में निष्णांत चित्रकारों द्वारा रेखाओं को गोलाकार और भुजंग वाली विधियों से अंकित किया गया है। मधु मालती, साँवलिंगा सदाव्रत, गीत गोविन्द तथा केशव की कविताएँ यहाँ की भित्तियों पर इस प्रकार उकेरी गई हैं कि इन अंकनों में रंग और रेखाएँ स्वयं बोलती है तथां शब्दों के लिए मानो कोई स्थान ही नहीं बचा है। इसके अतिरिक्त शाही वैभव के चित्र भी अति सुन्दरता से निष्णांत चित्रकारों द्वारा कुशलता पूर्वक उकेरे गए है जिनमें दर्पण देखती सुन्दरी, चकरी से क्रीड़ा करती किशोरी, पुष्प चयन करती युवती, हिरणों के साथ वन में अठखेलियाँ करती नायिका तथा राजा रानी की विविध विलास क्रीड़ाओं के चित्रण देखने योग्य हैं। इन चित्रों की आकृतियाँ लम्बी, शरीर पतले परन्तु स्फूर्ति से भरे हैं। स्त्रियों की चित्राकृतियों में अधरों की छटा विचित्र प्रकार का सौन्दर्य बिखेरती है।"
( पृष्ठ 29 )
      तीसरे अध्याय में " कोटा जिले के ऐतिहासिक पर्यटक स्थल" में कोटा के इतिहास की विस्तृत जानकारी दी गई है। कोटा के पर्यटक स्थलों में जगमंदिर, राजकीय संग्रहालय का विवरण, राव माधोसिंह संग्रहालय, राजमहल कक्ष, भित्तिचित्र, लक्की बुर्ज उद्यान, छात्रविलास उद्यान, चंबल उद्यान, कोटा अभिलेखागार, सेवन वंडर्स पार्क, किशोर सागर, क्षारबाग, हाड़ौती यातायात पार्क, मौजी बाबा गुफा, अधरशिला, चंबल रिवर फ्रंट, गोदावरी धाम, हनुमान मंदिर रंगबाड़ी , दाढ़देवी, चरण चौंकी, छोटी - बड़ी समाधि, अभेड़ा महल, गराडिया महादेव, विभीषण मंदिर( कैथून ), खैराबाद की फलोदी माता, शिव मंदिर ये३ भीमचौरी ( दरा ), शिव मंदिर - चारचौमा, आंवा के मंदिर, महाकालेश्वर मंदिर, शिव मंदिर - बनियानी, शिव मंदिर - चंद्रेशल, शिव एवं विष्णु मंदिर - मानसगांव, सूर्य मंदिर - बूढ़ादीत  एवं पालेश्वर शिव मंदिर - हरिपुरा को शामिल किया गया है। ( पृष्ठ 67 - 152 )
        "राव माधो सिंह संग्रहालय के दरबार हाल दीर्घा - दरबार हॉल के बाहर के बरामदे में खगोल यंत्र, जलघड़ी, धूपघड़ी, काष्ठ घोड़ा तथा नौबते आदि वस्तुएँ प्रदर्शित की गई हैं। दरबार हॉल में राजसी सामान में सोने-चाँदी, पीतल तथा अष्टधातु, हाथीदाँत, काष्ठ तथा वस्त्राभूषण, आकर्षक वाद्य यंत्र, गंजिफा खेल, चौपड़-चौसर, राजसी परिधान, सवारी सामग्री, श्रीनाथजी का चाँदी का सिंहासन व बाजोट, सुनहरी, हाथीदाँत और चाँदी की जड़ाई की कुर्सियाँ, हाथीदाँत के ढोलण के पाये, चाँदी की पिचकारियाँ, जड़ाऊ पालना, प्राचीन सिक्के, कागज पर लगने वाली रियासत की 95 मोहरें, रूईदार चादर सुनहरी, चाँदी तथा हाथीदाँत के बने पंखों की डंडियाँ, सोने चाँदी के जड़े नारियल, तीन शो केसों में रखे प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ, केरोसीन से चलने वाला प्राचीन पंखा तथा पुराने जमाने के विविध किस्म के ताले और चाबियाँ , तैरने का तख्ता जिसमें 4 तुम्बे लगे हुए हैं भी यहाँ प्रदर्शित किया गया है जिसका उपयोग पहले राजमहल के चौक के हौज में तैरने के लिये किया जाता था। झाला जालिम सिंह के नहाने का 20 सेर पानी का पीतल का चरा भी यहाँ है। महाराव उम्मेदसिंह और एक सजे हुए हाथी और घोड़े के विशाल नमूने भी यहाँ आकर्षण का केंद्र हैं। मध्य युगीन शास्त्रों का विशद संग्रह भी आश्चर्यचकित करता है"।( पृष्ठ 105 ) 
 "चम्बल रिवर फ्रंट कोटा में पर्यटन की दृष्टि से चम्बल नदी के किनारे चम्बल रिवर फ्रंट पर्यटन का सबसे बड़ा और केंद्रीय बन गया है। यह ना केवल हाड़ौती और राजस्थान वरन दुनिया के पर्यटन स्थलों में शुमार हो गया हैं। रात्रि में एल ई डी गार्डन देखना अनोखा अनुभव कराता है।
 पश्चिमी घाट पर राजस्थान के भव्य स्मारकों कीप्रतिकृतियाँ, कई प्रकार के आकर्षक संगीतमय फाउंटेंन, सुंदर घाट और अनेक अन्य आकर्षण अत्यन्त मोहक हैं। पूर्वी घाट की ओर जापान, चीन, थाईलैंड, दक्षिणी भारत आदि के कारीगरी पूर्ण भवन अत्यधिक आकर्षक हैं। शेर, ऊँट, घोड़ों की कलात्मक प्रतिमा का समूह देखते ही बनता है। पृथ्वी की गोल संरचना ग्लोबल खूब लुभाती है। एक छोर पर 40 मीटर ऊँची चंबल माता की श्वेत प्रतिमा विशेष आकर्षण का केंद्र बिंदु है जिसके करों में थामे कलश से जलधारा अविरल बहती है। हर शाम चंबल माता जी आरती की जाती है। रात्रि में यहाँ का दृश्य अपने रंगबिरंगे संगीतमय फाउंटेन्स से बेहद चित्ताकर्षक हो जाता है। प्रतिदिन यहाँ आयोजित लाइट एंड साउंड कार्यक्रम और रात्रि में रंग-बिरंगे नजारों के बीच नौकायन तो अविस्मरणीय है। नौकायन द्वारा पूर्वी घाट से पश्चिमी घाट पहुँचा जा सकता है।"
( पृष्ठ 115 )
      चौथे अध्याय में " झालावाड़ जिले के ऐतिहासिक पर्यटन स्थल " में झालावाड़ के इतिहास को बताते हुए पर्यटक स्थलों की जानकारी शामिल की गई है। पर्यटक स्थलों में झालावाड़ शहर, गढ़ पैलेस, भवानीनाट्य शाला , राजकीय पुरातत्व संग्रहालय, हरिश्चंद्र सार्वजनिक जिला पुस्तकालय, क्लाक टावर ( घंटाघर ), नाना देवी माता जी और सुंदर सरोवर, मंगलनाथ जी की तपोस्थली, कोठी पृथ्वी विलास एवं महासति जी, चायपानी का चबूतरा, भवानी परमानंद पुस्तकालय, शहीद निर्भयसिंह स्मारक, खंडिया चौपाटी और अश्व स्मारक, राज्य नृत्यांगना कुक्की का मकबरा, झालरापाटन, पद्मनाभ ( बड़ा मंदिर ), शांति नाथ दिगम्बर जैन मंदिर, द्वारकाधीश मंदिर, नौलखा किला, गणेशबारी, चौपाटी गार्डन, हर्बल गार्डन, विज्ञान पार्क एवं अन्य स्थल, मदन विलास, विनोद भवन, जूनी नसिया, ठाकुर साहब का श्रद्धा धाम, लवकुश वाटिका, चंद्रभागा - चंद्रावती ( चंद्रमौलेश्वर शिव मंदिर, अन्य देवालय ), विश्व धरोहर जलगुर्ग गागरोन, बलिंड घाट के गणेश जी, गिद्ध कराई, महान राजर्षि संत पीपा जी, ख्वाजा हमीदुद्दीन चिश्ती दरगाह और उर्स, कौलवी की बौद्ध गुफाएं, हथियागौड़,  गुनई  बिनायका, दलहनपुर, महू मैदाना, रातादेवी, शिव मंदिर , मनोहरथाना, अकलेरा, गंगधार, नागेश्वर पार्श्वनाथ - उन्हेल, क्यासरा -  कायावर्णेश्वर महादेव एवं चांदखेड़ी का जैन मंदिर शामिल किए गए हैं।( पृष्ठ 169  से 287 )
       जल दुर्ग गाग़रोन के बारे में लिखते हैं " शुक्रनीति में वर्णित अनेक दुर्ग लक्षणों मे से पाँच लक्षण एक साथ स्वयं में सँजोने वाला भी यही एकमात्र दुर्ग है। यथा इसके तीनों ओर गहरा, बहता जल, दुर्गम पथ, विशाल खाई, मजबूत चट्टानी परकोटा व जल संचय का आन्तरिक प्रबन्ध। पूरे देश में एकमात्र यही ऐसा दुर्ग है जो विशाल और अभेद्य चट्टानों पर बगैर नींव के सदियों से आज तक खड़ा हुआ है। इस दुर्ग क्षेत्र की समूची भौगोलिक व प्राकृतिक स्थिति देशभर में इसे इकलौता बना देती है। मध्यकाल में इस दुर्ग का इतना अधिक महत्व था कि 'मआसिरे महमूदशाही' के लेखक शिहाब हाकिम ने इस दुर्ग को 'हिन्दुस्तान के सारे दुर्गों (किलों) के कंठहार का 'बिचला मोती' कहकर प्रशंसित किया है। ज्ञातव्य है कि अपनी ऐसी ही अद्भुत विशेषताओं के कारण यह दुर्ग 21 जून, 2013 ई. को यूनेस्को की विश्व विरासत में सम्मिलित किया गया था।" ( पृष्ठ 219 )
  राजर्षि संत पीपा जी निर्गुण भक्ति भाव धारा के कवि थे। उन्होंने अपने विचारों और कृतित्व से भारतीय समाज में सुधार का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने लोक के कोण से शास्त्र को परखा भी और उसमें परिवर्तन भी किया। सदियों से भारत देश में चली आ रही चतुःवर्ण परम्परा में एक नवीन वर्ण 'श्रमिक' नाम से सृजित करने में उन्होंने महत्ती भूमिका निभाई। वे सामाजिक समन्वय के अतिरिक्त वे मानवीय कर्म ओर धर्म में भी समन्वय देखते हैं। इसी क्रम में निर्गुण ओर सगुण में भी उनकी दृष्टि समन्वय भावों की रही है .......
हिरदै राखै धरम नै, करमाई करम कमाण। पीपा सत री ढाल दे, भेदौ निहिच निसाण ।। एवं सरगुण मीठौ खाण्ड सौ, निरगुन करूऔ नीम। पीपा सद्गुरु पुरस दे, निरभय होकर जीम ।। " ( पृष्ठ 232 )
        पांचवें अध्याय में" बारां जिले के ऐतिहासिक दर्शनीय स्थल " में  श्री कल्याण मंदिर, संत प्यारे राम मंदिर, राजकीय संग्रहालय, शेरगढ़ किला, शाहबाद किला, छबड़ा का गूगोर किला, सीताबाड़ी, सोरसन, कपिलधारा, विलास के मंदिर, रामगढ़ क्रेटर, शिव मंदिर - भण्डदेवरा, अटरु के मंदिर, काकूनी के मंदिर, बिछालस का शिव मंदिर, बासथूनी का शिव मंदिर, खोखागढ़ का शिव मंदिर, नागदा का शिव मंदिर एवं सहरोद का शिव मंदिर शामिल।किए गए हैं। इसी अध्याय में संग्रहालयों में जैन, हिंदू मूर्तियों का विवरण भी है। ( पृष्ठ 304 से 353  ) अंत में संदर्भ सामग्री का उल्लेख करना लेखक की सत्यनिष्ठा का प्रतीक है।
    शिलालेखों के अध्ययन के आधार पर शेरगढ़ किले के बारे में लिखते हैं, " परवन नदी के बायें किनारे स्थित यह किला अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण जल दुर्ग तथा वन दुर्ग की श्रेणी में रखा जाता है। यह दुर्ग अंचल का सबसे प्राचीन दुर्ग माना जाता हैं। शेरगढ़ दुर्ग का निर्माण कब और किसने करवाया, इसके ऐतिहासिक प्रमाण मौन हैं लेकिन किले के बरखेड़ी द्वार के बायीं ओर ताख में लगे शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि शेरगढ़ का प्राचीन नाम कोषवर्धन था तथा यह सातवीं शताब्दी से भी अधिक पुराना है। इस शिलालेख में बौद्ध मतानुयायी नागवंशी राजा देवदत्त का नामोल्लेख है, जिन्होंने माघ सुदी छठ, संवत् 870 में शिलालेख लिखवाया था। नागवंशियों के बाद कोषवर्धन पर परमार राजाओं का शासन रहा, जिन्होंने दुर्ग का विस्तार किया और अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। प्राचीन लक्ष्मीनारायण मंदिर में लगे 11वीं शताब्दी के दो शिलालेखों में से एक में धार के परमार शासकों वाक्पतिराज से उदयादित्य तक की वंशावली दी हुई है। शेरगढ़ में 11वीं शताब्दी की तीन खण्डित जैन प्रतिमाओं की चरण चौकी पर उत्कीर्ण लेख से पता चलता है कि 11वीं शताब्दी तक यह नगर कोषवर्धन था और जैन प्रतिमाओं का निर्माण किसी राजपूत सरदार ने करवाया था। परमार काल में यहाँ जैन मंदिरों सहित कई मंदिरों का निर्माण हुआ।" ( पृष्ठ 307 )
   " रामगढ़ में शिव मंदिर भंडदेवरा के संबंध में
 दसवीं शताब्दी का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है जो संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है .......

"श्री मलयदेवर्मण.. ...विजयोल्लास.. ...विनम्रस्य...........
सहस्त्रावधिपरास्तपस्य भक्तिकीर्तिमूर्ति।"

इस लेख का अर्थ यह हो सकता है कि 'नागवंशी राजा मलयवर्मन ने विजयोत्सव पर इस देवालय (शिवमन्दिर) का निर्माण करवाया था।' यह शिलालेख कोटा संग्रहालय में सुरक्षित है। दूसरा लेख तेरहवीं शताब्दी का है, जो परिक्रमा वाले भाग में मन्दिर के अन्दर के स्तम्भ पर संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण है.......

संवत् 1219......... त्रिशासवर्मामेदवंशीय महाराज श्रीमतिसिंहस्य।

जिसका अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है कि 'विक्रम संवत् 1219 (तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ) में एक मेद वंशीय क्षत्रिय राजा त्रिशासवर्मा ने इस देवालय का जीर्णोद्धार करवाया। त्रिशासवर्मा के पूर्व गुदलराव खींची ने जायल (नागौर) से आकर यहाँ डेरे डाले थे। यहाँ एक यम की मूर्ति के पैर में विक्रम संवत् 1232 (ई. 1175) का संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण एक लेख है। यह मन्दिर प्रौढ़ हिन्दू कला का सुन्दर उदाहरण है। इसके शिखर, मण्डप, तोरण, स्तम्भ सब उत्तम कला के द्योतक हैं। इसका सभा मण्डप छोटे-बड़े कुल 28 स्तम्भों पर टिका हुआ है। इसमें 10 बड़े एवं 18 छोटे कलात्मक स्तम्भ हैं, जो शैव धर्म के प्रतीक हैं। आरम्भ में यहाँ शैव मत का बाहुल्य था और यहाँ वाम मार्गीय शाखा का प्रचार हुआ ।  प्रेमालाप मूर्तियों के बाहुल्य के कारण ही इस मन्दिर को 'मिनी खजुराहो' भी कहा जाता है।" ( पृष्ठ 325, 326)
      पुस्तक के पहले फ्लैप पर पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग की अधीक्षक डॉ. धरमजीत कौर ने अपने संदेश में लिखा है, " प्रस्तुत पुस्तक में मालवा और राजस्थान के संधि स्थल पर अवस्थित 'हाड़ौती प्रदेश' के सुन्दर और समृद्ध इतिहास एवं पर्यटन के अनेकानेक स्थलों पर सारगर्भित जिलेवार विशद् जानकारी प्रदान की गई है। पुस्तक में हाड़ौती प्रदेश के बूंदी, कोटा, झालावाड़ और बारां जिले के परिक्षेत्र में गुप्तकाल से लेकर निरन्तर प्रतिहार काल, परमार काल, उत्तर परमार काल एवं राजपूत कालीन स्थलों, देवालयों की ऐसी पर्यटन और कलात्मक सुन्दर व्याख्या की है जिनका अतीत और वर्तमान जानकार हम इस क्षेत्र की सांस्कृतिक गौरव, गरिमा का गुणानुवाद कर सकते हैं। पुस्तक में पर्यटन के अन्य स्थलों के साथ क्षेत्र के दर्शनीय मन्दिरों की सुन्दरता जानकारी सहित उनकी स्थापत्य शैली और मूर्तिकला में अवदान को समझने के लिये प्रस्तुत कृति महत्त्वपूर्ण तथा आज के भारत देश में इन मन्दिरों की गौरवशाली परम्परा को जानना आवश्यक है। इस दृष्टि से क्षेत्रीय प्रातत्त्व और पर्यटन में ऐसे कार्य अति-महत्त्वपूर्ण होते हैं।" 
     पुस्तक के दूसरे फ्लैप पर चित्तौड़गढ़ के मीरा स्मृति संस्थान के अध्यक्ष प्रो. सत्यनारायण समदानी लिखते हैं , " राजस्थान के इतिहास और संस्कृति में हाड़ौती क्षेत्र का इतिहास और कला पुरातत्त्व बड़ा गौरवशाली रहा है। पुस्तक में यहां के शासकों के शासन, प्रशासन, यौद्धिक वीरता के लम्बे इतिहास का सुन्दर लेखा-जोखा सिलसिलेवार है। जिसका अध्ययन कर हम हाड़ौती के इतिहास और भूगोल को भली-भाँति जान सकते हैं। इतिहासकार ललित शर्मा ने पर्यटन व पुरातत्त्व के कोण से इन सैकड़ों स्थलों के बारे में जीवन्त भाव से इस प्रकार लिखा है मानो पर्यटक और शोधार्थी स्वयं उसमें जी रहा हो। पुस्तक लेखक की कठोर परिश्रम शैली का सतत् परिणाम है।"
      लेखक ने अपने लेखकीय में लिखा है, "
" आज के दौर में इन जिलों में अनेक ऐसे पुरा महत्व के दर्शनीय स्थल हैं जिनको देखकर व इनकी जानकारी प्राप्त कर कोई भी पर्यटक या शोधार्थी इस क्षेत्र की प्राचीन कला के वैभव के बारे में विस्तार से जान सकता है। बूंदी क्षेत्र हाड़ौती संभाग में प्राचीन राज्य के रूप में परिचित रहा है, परन्तु यहाँ अनेक महल, किले, छत्री और कला स्मारक हैं, जिनके बारे में जानना शेष है। यहाँ का इतिहास दीर्घावधि तक बड़ा गौरवशाली रहा है, परन्तु उसमें अभिवृद्धि यहाँ के कला स्मारकों ने की है। कोटा राज्य बूँदी से ही निकला है। यहाँ का इतिहास भी काफी वैभवशाली रहा है। परन्तु इसी के साथ यहाँ के संग्रहालय, स्मारक और मन्दिर स्थापत्य भी संस्कृति की वैभवशाली झलक प्रस्तुत करते है। जिन्हें जानना आज के दौर में अति आवश्यक है। झालावाड़ राज्य का उद्भव कोटा से ही हुआ। यह राज्य सबसे नवीन रहा, परन्तु इस क्षेत्र के स्मारक, पुरामहत्व की धरोहरें और कलात्मक मन्दिर दीर्घकाल से ही मालवा की संस्कृति से प्रेरित रहे। इस जिले के अनेक स्मारक आज भी भारतीय इतिहास की धरोहर हैं। पर्यटन की दृष्टि से यह क्षेत्र सर्वथा अछूता रहा है"।  लेखक ने पृथक से उन सभी का आभार व्यक्त किया है जिन्होंने इस पुस्तक को तथ्यात्मक और उपयोगी बनाने में  जानकारी दे कर सहयोग किया है। प्रत्येक अध्याय के पश्चात संबंधित जिलों के पर्यटक स्थलों के चित्र दिए गए हैं जो संख्या में 144 हैं। आवरण पृष्ठ को चारों जिलों के प्रतिनिधि चित्र बूंदी जिले की चित्रशाला, कोटा जिले का गढ़, बारां जिले का भंडदेवरा तथा झालावाड़ जिले का 
विश्व विरासत में शामिल जल दुर्ग गाग़रोन से सजाया गया है। पुस्तक की प्रिंटिंग अच्छी और अक्षर पठनीय हैं। पुस्तक में फोटो की प्रिंटिंग पर थोड़ा ध्यान दिया जाता तो वे और अधिक आकर्षक हो सकते थे।

पुस्तक : हाड़ौती दर्शन
लेखक : ललित शर्मा, झालावाड़
प्रकाशक : साहित्यगार, जयपुर
प्रकाशन : 2025
प्रकार : हार्डबाउंड
पृष्ठ : 372
मूल्य: 500 रुपए
ISBN : 978 -93 - 5947 -871 -5
उपलब्ध : अमेजन. इन / फ्लिपकार्ट. कॉम

परिचय :

महाराणा श्री जी अरविन्द सिंह मेवाड़ से 'महाराणा कुम्भा इतिहास अलंकरण 2017 ई. प्राप्त करते हुए

इतिहासकार ललित शर्मा (सिटी पैलेस, उदयपुर)

राजस्थान के झालावाड़ में जन्मे ललित शर्मा आरम्भ से ही प्राचीन पुरातत्त्व, इतिहास और संस्कृति की विधाओं को समर्पित रहे हैं। मन्दिर स्थापत्य, मुद्रा, मूर्ति एवं अभिलेख विधा में दक्ष पुरातत्त्व विशारदों से शिक्षित ललित शर्मा ने 1979 ई. से अपना शोध-लेखन आरम्भ किया और अभी तक इनके 1750 से अधिक लेखों का राष्ट्रीय व राज्य स्तर पर प्रकाशन हो चुके हैं। इतिहास की राजस्थान एवं मालवा (म.प्र.) की संगोष्ठियों में शर्मा ने दर्जनों मौलिक और खोज परक लेख प्रस्तुत कर कई क्षेत्रीय अनछुए पहलुओं को उजागर एवं स्थापित किया है जिनसे मालवा और हाड़ौती प्रदेश के इतिहास का अंधकारमय पक्ष उजागर हुआ है। उक्त विविध विधाओं पर इनके 17 संदर्भ ग्रंथों का प्रकाशन भी हो चुका है जिन्हें राजस्थान और मालवा के इतिहासकारों ने मान्यता प्रदान की है। निरन्तर शोध-लेखन में संलग्न ललित शर्मा को पुरातत्त्व और इतिहास की दीर्घ सेवाओं के लिये मध्यप्रदेश शासन के तुलसी मानस संस्थान (भोपाल) का 'सुखरानी देवी द्वितीय राष्ट्रीय सम्मान' 2014 ई., मेवाड़ महाराणा फाउण्डेशन (उदयपुर) का महाराणा कुम्भा इतिहास अलंकरण 2017 ई. कला, साहित्य एवं संस्कृति परिषद् (मेवाड़) का 'हल्दीघाटी इतिहास गौरव सम्मान' 2018 ई. एवं साहित्य मण्डल श्रीनाथद्वारा के 'भगवती प्रसाद देवपुरा स्मृति इतिहास सेवा सम्मान' 2018 ई. तथा भोपाल का पुरातत्वविद् डॉ. वाकणकर रजत अलंकरण 2019 ई. व विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के प्राचीन इतिहास विभाग का 'पद्मश्री डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर स्मृति सम्मान' 2021 ई. सहित दो दर्जन सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। इनकी लिखी कृति एवं पाठ 'राजर्षि संत पीपाजी' कोटा विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी (पूर्वाद्ध) तथा स्नातक कला संकाय के इतिहास (द्वितीय वर्ष) के राजस्थान इतिहास का सर्वेक्षण में लागू हुआ है। इसी विषय में इनकी शोध कृति एवं पाठ 'जलदुर्ग गागरोन' भी लागू हुआ है।आप 15 विशिष्ट स्तरीय स्मारिकाओं का सम्पादन, प्रबंधन एवं प्रकाशन कर चुके हैं। 
सम्पर्कः मो. 90790 87965
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