‘कर्ण’ के मंचन ने कराया इतिहास से रूबरू

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Published on : 06 Jul, 25 15:07

‘कर्ण’ के मंचन ने कराया इतिहास से रूबरू


उदयपुर, पश्चिम क्षेत्र सास्कृतिक केंद्र उदयपुर द्वारा आयोजित मासिक नाट्य संध्या ‘रंगशाला’ के अंतर्गत रविवार ‘कर्ण’ नाटक का प्रभावशाली मंचन किया गया। दर्शकों से खचाखच भरे सभागार में इस प्रस्तुति को खूब सराहा गया।
पश्चिम क्षेत्र सास्कृतिक केंद्र उदयपुर के निदेशक फ़ुरकान खान ने बताया की प्रति माह आयोजित होने वाली मासिक नाट्य संध्या रंगशाला के अंतर्गत कारवां थिएटर ग्रुप मुंबई द्वारा ‘कर्ण’ नाटक का मंचन रविवार को शिल्पग्राम उदयपुर स्थित दर्पण सभागार में किया गया। इस नाटक के नाटककार एवं लेखक कुलविंदर बख्शीश सिंह है। यह नाटक एक महिला श्रृंखला है जिसका यह प्रथम भाग है। इसमें तीन महिला कलाकारों ने 18 से अधिक चरित्रों को जीवंत किया। इस नाटक को महाराष्ट्र सरकार द्वारा वर्ष 2024 में सर्वश्रेष्ठ हिन्दी नाटक व महाराष्ट्र राज्य पुरस्कार सहित सात श्रेणियों में सम्मानित किया गया। जिसमें सर्वश्रेष्ठ नाटक, सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री व सहअभिनेत्री, सर्वश्रेष्ठ निदेशक, प्रकाश व्यवस्था व वेशभूषा व मंच सज्जा है। नाटक की महिला कलाकार विनीता जोशी, माया शर्मा एवं फरहा है। इस नाटक के निर्माता अभिषेक नारायण, विद्युत सज्जा चेतन सम्पत धवले, प्रोडक्शन हेड मुमताज अली, संगीत ऑपरेटर भूषण भावसार, कॉस्टयूम अपूर्वा पंडित एवं मेकअप नोयरिका भाठेजा ने की। रंगमंच प्रेमियों ने केन्द्र की प्रशंसा की और ऐसे आयोजन करने के लिए धन्यवाद किया। अंत में सभी कलाकारों का सम्मान किया गया।
कार्यक्रम में केन्द्र के उपनिदेशक (कार्यक्रम) पवन अमरावत, सहायक निदेशक (वित्तीय एवं लेखा) दुर्गेश चांदवानी, सी.एल. सालवी, हेमंत मेहता, राकेश मेहता, सिद्धांत भटनागर सहित शहर के कई गणमान्य अतिथि उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन दुर्गेश चांदवानी ने किया।
नाटक की कहानी -
यह एक ऐसा अनकहा आख्यान है जिसे अक्सर सामूहिक चेतना के हाशिये पर छोड़ दिया जाता है - एक ऐसे व्यक्तित्व की गाथा जो अस्तित्व की अग्निपरीक्षा, करुणा, और मातृत्व के संघर्ष में गुमनामी के बीच फँस जाता है, और फिर भी उदारता और त्रासदी का प्रतीक बनकर उभरता है।
यह कथा अस्तित्व के संघर्षों को उकेरती है, जो नैतिक दुविधाओं की भूलभुलैया से गुजरती है, परंतु फिर भी सत्य, ईमानदारी और अडिग प्रतिबद्धता के सिद्धांतों से विचलित नहीं होती। भले ही अपने कर्मों की नैतिक अस्पष्टता से आमना-सामना क्यों न करना पड़े।
इस संपूर्ण कथा का केंद्र बिंदु कर्ण हैं, महाभारत के एक प्रमुख पात्र, जिनके इर्द-गिर्द यह संपूर्ण आख्यान घूमता है। वे एक माध्यम बनते हैं, जिसके द्वारा मानव संघर्ष, जटिलताओं और आत्मिक धैर्य के अनेक रूप उद्घाटित होते हैं।
यह नाटक युद्ध की भयावह सच्चाइयों को सामने लाता है, जिनकी टकराहट आज के क्षणभंगुर तथ्यों और सापेक्ष सत्य से होती है। दर्शकों को यह सोचने पर विवश करता है कि नैतिक मूल्यों की निरपेक्षता वास्तव में कितनी सापेक्ष हो सकती है।
बड़ी बारीकी और शिल्पगत सूक्ष्मता के साथ रचा गया यह मंचन तीन महिला कलाकारों द्वारा निभाए गए बहुआयामी पात्रों के माध्यम से अपनी आत्मा को अभिव्यक्त करता है, जिसे भारत की पारंपरिक लोक एवं मार्शल कलाओं मयूरभंज छऊ, मणिपुरी थांग-ता और केरल की कलारीपयट्टु से समृद्ध किया गया है।
अंततः, कर्ण केवल एक पात्र नहीं, बल्कि एक ऐसा दर्पण बन जाते हैं जिसके माध्यम से मानवीय अस्तित्व की जटिलताओं को देखा, समझा और महसूस किया जा सकता है, जो दर्शकों को आत्ममंथन, करुणा और गहन संवेदनशीलता की ओर आमंत्रित करता है।


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