विधायी संस्थाओं की गरिमा कम होना चिंता का विषय

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Published on : 26 Aug, 25 06:08

विधायी संस्थाओं की गरिमा कम होना चिंता का विषय

गोपेन्द्र नाथ भट्ट 

नई दिल्ली लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला ने दिल्ली विधानसभा में आयोजित राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन के समापन सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि वर्तमान समय में विधायी संस्थाओं की गरिमा कम होना चिंता का विषय है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सदस्यों के विशेषाधिकार को सदन की गरिमा को कम करने की स्वतंत्रता नहीं समझा जाना चाहिए। 

बिरला ने सुविख्यात स्वतंत्रता सेनानी, विद्वान एवं विधिवेत्ता, वीर विट्ठलभाई पटेल के केन्द्रीय विधान सभा के प्रथम भारतीय अध्यक्ष के पद पर निर्वाचन के शताब्दी वर्ष समारोह के अवसर पर सोमवार को दिल्ली विधान सभा में राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों के विधायी निकायों के पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में समापन भाषण देते हुए ये टिप्पणियां कीं। इस अवसर पर केंद्रीय संचार और पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्री ज्योतिरादित्य एम. सिंधिया,आवासन  एवं शहरी मामले तथा विद्युत मंत्री,मनोहर लाल खट्टर ,दिल्ली की मुख्य मंत्री रेखा गुप्ता,दिल्ली विधान सभा के अध्यक्ष विजेंदर गुप्ता, राजस्थान के विधानसभाध्यक्ष वासुदेव देवनानी सहित विभिन्न राज्य विधान सभाओं और परिषदों के पीठासीन अधिकारी, सांसद, विधायक और अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित थे ।

 

लोकसभाध्यक्ष बिरला द्वारा की गई टिप्पणियां सटीक है । उन्होंने बहुत सही मुद्दा उठाया है। वर्तमान समय में विधायी संस्थाओं (संसद और विधानसभाओं) की गरिमा में गिरावट होना वास्तव में लोकतंत्र के लिए चिंता का विषय है। इसके कई पहलू हैं।भारत की संसदीय और विधायी संस्थाएँ लोकतांत्रिक मूल्यों की धुरी रही हैं। संविधान निर्माताओं ने इन्हें जनता की आवाज़ और समस्याओं के समाधान का सर्वोच्च मंच माना था।राजनीतिक शोर-शराबा और हंगामा – बहस की जगह शोर, नारेबाजी और वेल में आकर विरोध करना आम हो गया है।कार्यवाही का घटता समय – संसद और विधानसभाओं में उपयोगी विधायी कामकाज का समय लगातार घट रहा है।गंभीर और सार्थक बहस की जगह व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप और दलगत राजनीति हावी हो गई है।सदन के अंदर अशोभनीय आचरण, माइक तोड़ना, कागज़ फाड़ना जैसी घटनाएँ संस्थागत गरिमा को ठेस पहुँचाती हैं। विधेयकों को पर्याप्त चर्चा के बिना पारित करना जनता के विश्वास को कमजोर करता है।इसके परिणामस्वरूप जनता का विश्वास घटता है।लोकतंत्र की मजबूती पर प्रश्न उठता है।राजनीतिक नेतृत्व की विश्वसनीयता कम होती है।संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका कमजोर पड़ती है।इसे रोकने के लिये सदन में अनुशासन और आचरण संहिता को सख्ती से लागू करना।विधायी कार्यवाही का न्यूनतम समय सुनिश्चित करना (जैसे राज्यसभा में 100 दिन, विधानसभा में 60 दिन की अनिवार्यता) की जानी चाहिए ।सार्वजनिक हित पर आधारित बहस को प्रोत्साहन देना चाहिए ।सांसदों/विधायकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने चाहिए ।मीडिया और जनता की निगरानी को प्रभावी बनाना चाहिए ताकि जवाबदेही तय हो।

 

बिरला ने कहा कि इस शताब्दी वर्ष पर, जनप्रतिनिधियों को विधायी निकायों में स्वतंत्र, निष्पक्ष और गरिमापूर्ण चर्चा सुनिश्चित करने की  प्रतिबद्धता को समझना चाहिए। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सभी राजनीतिक दलों को यह सुनिश्चित करने के लिए एक साथ आना चाहिए कि विधायी निकायों में विचारों की स्पष्ट अभिव्यक्ति जारी रहे, तथा सहमति और असहमति दोनों के माध्यम से लोकतंत्र को मजबूत किया जाए।बिरला ने विधिनिर्माताओं से उचित आचार संहिता का पालन करने का आह्वान किया और कहा कि  जनता सदन के अंदर और बाहर उनके कार्यों और आचरण को देखती है। जनप्रतिनिधियों को यह याद रखना चाहिए कि उनकी भाषा, विचार और अभिव्यक्ति लोकतंत्र की ताकत हैं और उन्हें सम्मानजनक और गरिमापूर्ण बनाए रखना आवश्यक है। जनप्रतिनिधियों के आचरण के बारे में आगे अपने विचार व्यक्त करते हुए, श्री बिरला ने कहा कि विधायी निकायों के सदस्यों को अपने निकायों के नियमों, परंपराओं और परम्पराओं को बनाए रखना चाहिए। सदन को सदैव जनता की आवाज बनना चाहिए तथा सदन में बनाए गए कानून जनहित में होने चाहिए। बिरला ने कहा कि इस संबंध में पीठासीन अधिकारी की जिम्मेदारी बहुत महत्वपूर्ण है। वर्तमान और भावी पीठासीन अधिकारी सदन की कार्यवाही को स्वतंत्र, निष्पक्ष और गरिमापूर्ण बनाए रखेंगे।बिरला ने सभी राजनीतिक दलों से विधायी संस्थाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व पर विचार करने का आह्वान किया और  कहा  कि संवाद, चर्चा, सहमति और असहमति भारतीय लोकतंत्र की ताकत बनी रहेगी। उन्होंने यह भी कहा कि सहमति और असहमति जितनी अधिक विविधतापूर्ण  होगी, लोकतंत्र उतना ही मजबूत होगा। उन्होंने कहा कि शताब्दी वर्ष के अवसर पर वीर विट्ठलभाई पटेल की विरासत न केवल राष्ट्र को प्रेरित करेगी बल्कि उसे एक नई दिशा की ओर भी ले जाएगी। उन्होंने आशा व्यक्त की कि सभी पीठासीन अधिकारी श्री पटेल के पदचिन्हों पर चलने का ईमानदारी से प्रयास करेंगे।

 

संसद में व्यवधान  के कारण होने वाले आर्थिक नुकसान का विवरण आत्म मंथन के लिए पर्याप्त है।प्रत्येक मिनट संसद चलाने का खर्च लगभग ₹2.5 लाख माना जाता है।तीन दिनों की व्यवधान-स्थिति में राज्यसभा (Rajya Sabha): लगभग ₹10.2 करोड़ का नुकसान (816 मिनट × ₹1.25 लाख) और लोकसभा लगभग ₹12.83 करोड़ का नुकसान (1,026 मिनट × ₹1.25 लाख) कुल मिलाकर अकेले हाल के मानसून सत्र के पहले तीन दिनों में ही देश को ₹23 करोड़ का घाटा हुआ। इसी प्रकार मार्च 2023 में हुए  बजट सत्र में भी केवल कुछ दिनों की कार्यवाही में विघटन के कारण ₹10 करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ।इस दौरान संसद लगभग ₹2.5 लाख प्रति मिनट की दर से चल रही थी।

ऐसे में लोकसभाध्यक्ष बिरला के विचार न केवल प्रासंगिक हैं वरन् विचारणीय भी है।


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