आज जब हम जनजातीय गौरव दिवस मना रहें हैं, तब महान आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक भगवान बिरसा मुंडा को याद करना न केवल हमारा कर्तव्य है, बल्कि यह हमारे राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक भी है। ष्धरती आबाष् यानी श्धरती के पिताश् के नाम से प्रसिद्ध बिरसा मुंडा ने मात्र 25 वर्ष की अल्पायु में राष्ट्र और जनजाति समुदाय के लिए जो कार्य किए, वे सदियों तक प्रेरणा देते रहेंगे।
भगवान बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर, 1875 को झारखंड के उलिहातू गाँव में हुआ था। उन्होंने बहुत कम उम्र में ही अपने आदिवासी समाज पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और ईसाई मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव को महसूस किया।बिरसा मुंडा का जीवन ब्रिटिश उपनिवेशवाद, साहूकारों के शोषण और जमींदारी प्रथा के क्रूर गठजोड़ के खिलाफ एक अटूट संघर्ष था। उन्होंने देखा कि किस तरह उनकी मुंडा जनजाति की खुंटकट्टी (सामुदायिक स्वामित्व) कृषि प्रणाली को छीना जा रहा है, और उन्हें बेगार (बंधुआ मजदूरी) करने के लिए मजबूर किया जा रहा है।19वीं शताब्दी के अंत तक, ब्रिटिश शासन ने अपने क्रूर ’वन कानूनों’ (जैसे भारतीय वन अधिनियम 1865 और 1878) के माध्यम से आदिवासियों को उनकी पारंपरिक वन भूमि से वंचित कर दिया। उन्होंने जंगलों को व्यावसायिक लाभ के लिए आरक्षित वन घोषित कर दिया, जिससे आदिवासियों को लकड़ी काटने, मवेशी चराने, वनोत्पाद इकट्ठा करने या पारंपरिक शिकार करने से रोक दिया गया। इससे आदिवासियों की आजीविका और उनकी प्राचीन जीवनशैली पर सीधा हमला हुआ। बिरसा मुंडा ने इस शोषणकारी नीति और पर्यावरणीय विनाश के खिलाफ पुरजोर आवाज़ उठाई। उनका मानना था कि भूमि, जल और जंगल पर आदिवासियों का सामूहिक अधिकार है, और इन संसाधनों का उपयोग केवल सतत और न्यायपूर्ण तरीके से ही किया जाना चाहिए, न कि अनियंत्रित दोहन के लिए।
इस शोषण के विरुद्ध उन्होंने श्उलगुलानश् (महान विप्लव) आन्दोलन का आह्वान किया। यह केवल भूमि के लिए विद्रोह नहीं था; यह जल, जंगल और जमीन पर आदिवासियों के पैतृक अधिकार, उनकी संस्कृति और उनकी पहचान को बचाने की लड़ाई थी। बिरसा ने आदिवासियों को एकजुट किया, उनके बीच व्याप्त जाति और उपजाति के भेदों को मिटाया, और उन्हें यह एहसास दिलाया कि वे भी सम्मान और अधिकारों के पात्र हैं। उन्होंने अपने लोगों को यह सिखाया कि अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाना और अपनी गरिमा के लिए लड़ना उनका जन्मसिद्ध अधिकार है। उन्होंने आदिवासियों को उनकी पारंपरिक न्यायिक प्रणाली, जैसे ’पड़ा पंचायत’ और ’मानकी-मुंडा’ व्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए प्रेरित किया, ताकि वे अपने विवादों का निपटारा स्वयं कर सकें और बाहरी अदालतों पर निर्भर न रहें। उनका ’अबुआ राज’ (अपना राज) का विचार केवल ब्रिटिश शासन से राजनीतिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था, बल्कि एक ऐसे समाज की कल्पना थी जहाँ सभी को समान अधिकार मिलें, जहाँ किसी भी प्रकार का शोषण न हो और जहाँ हर व्यक्ति गरिमापूर्ण जीवन जी सके।
बिरसा मुंडा ने अपने अनुयायियों को संगठित किया, उन्हें शस्त्रों के बजाय आत्म-विश्वास और सत्यनिष्ठा का बल दिया।1897-1900 का बिरसा आंदोलन ब्रिटिश दमनकारी नीतियों एवं सामाजिक अन्याय के खिलाफ एक प्रत्यक्ष और सशक्त चुनौती थी, जिसमें आदिवासियों ने अपने अधिकारों के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित विरोध किये । जनवरी 1900 में डोम्बरी पहाड़ी पर जन सभा को संबोधित करते वक्त अंग्रेज सेना के साथ बिरसा मुंडा का टकराव हुआ एवं फरवरी में चक्रधरपुर के जमकोपाई जंगल से अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। बिरसा मुंडा जी को अंग्रेजों ने कैद कर रांची कारागार में रखा जहाँ अंग्रेजों द्वारा इस आदिवासी महानायक को कई कठोर याजनाऐं देते हुए अन्ततः कारागार में बिरसा मुंडा जी की रहस्यमी परिस्थितियों में 9 जून 1900 को मृत्यु हो गई।
बिरसा मुंडा केवल एक महान योद्धा ही नहीं थे, अपितु एक दूरदर्शी समाज सुधारक भी थे। उन्होंने देखा कि जनजाति समुदाय में असंगठन,अशिक्षा,आर्थिक तंगी का गलत लाभ उठाते हुए ईसाई मिशनरियों द्वारा भोले-भाले आदिवासियों का धर्मान्तरण किया जा रहा है एवं आदिवासियों को उनकी गौरवशाली प्राचीन परम्पराओं से विमुख किया जा रहा हैद्य बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को उनके धर्म एवं परम्पराओं से जोड़ने के लिए कमर कसी एवं लगभग 1894-95 के आसपास, बिरसा ने एक आध्यात्मिक और सामाजिक-धार्मिक आंदोलन की शुरुआत की, जिसे ’बिरसाइत’ पंथ के नाम से जाना जाता है। यह पंथ मूल मुंडा परंपराओं और एकेश्वरवाद का एक अनूठा संगम था, जिसमें केवल ’सिंगबोंगा’ (सूर्य देवता) की पूजा पर जोर दिया गया और जनजाति समुदाय में साफ-सफाई, शुद्धता तथा नैतिकता को जीवन का आधार माना गया। उन्होंने जनजातीय समुदाय को अंधविश्वासों, पशु बलि और नशीले पदार्थों के सेवन से दूर रहने का उपदेश दिया। उनका यह प्रयास दिखाता है कि उन्होंने केवल बाहरी शत्रुओं से नहीं, बल्कि आंतरिक बुराइयों से भी लड़ने का बीड़ा उठाया था।
बिरसा मुंडा की शहादत के वर्षों बाद भी, उनका संदेश आज भी गूँजता है। उनके संघर्ष ने जनजातीय समुदायों को अधिकार और न्याय के लिए लड़ना सिखाया। उनकी प्रेरणा से ही, देश में वन अधिकार अधिनियम ,पेसा कानून और जनजातीय हितों की सुरक्षा के लिए कई संवैधानिक प्रावधान लागू हुए हैं।
बिरसा मुंडा हमें सिखाते हैं कि सच्चा नेतृत्व संसाधनों या उम्र से नहीं, बल्कि साहस, नैतिकता और अपने लोगों के प्रति समर्पण से मापा जाता है। आज के भारत में, जब हम समावेशी विकास और सामाजिक न्याय की बात करते हैं, तब हमें बिरसा मुंडा के उस सपने को याद रखना होगा जिसमे एक एक ऐसा समाज-निर्माण करने कि अभिलाषा है जहाँ हर व्यक्ति को गरिमा और स्वाभिमान के साथ जीने का अधिकार हो, और जहाँ प्रकृति का सम्मान सर्वापरि हो।आइए, हम सब धरती आबा के दिखाए मार्ग पर चलें और उनके न्यायपूर्ण तथा समतावादी समाज के सपने को साकार करने में अपना योगदान दें।