साहित्य मनीषी कर्मयोगी स्व. भगवती प्रसाद देवपुरा 

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Published on : 27 Dec, 25 05:12

साहित्य मनीषी कर्मयोगी स्व. भगवती प्रसाद देवपुरा 

अंजीव अंजुम

जीवन की पगडंडी बहुत लंबी है। बहुत उबाऊ और थकान भरी भी। छोटे-छोटे कदमों से आदमी उस पगडंडी को लंबे से लंबा नापने का प्रयास करता है। इस पगडंडी पर उसे जीवन के अनेक दृश्य दिखाई देते हैं। कभी रमणीक खुशियों से भरे तो कभी दुःखद नीरसता और निराशा देने वाले। इन्हीं दृश्यों के मध्य कुछ आकृतियाँ भी स्वयं की उपस्थिति उस पगडंडी पर कदम-से-कदम मिलाते हुए अनुभव कराती हैं। वे आकृतियाँ दूर लक्ष्य दिखाते हुए उस मनुष्य के सफर की कठिनाइयों को कभी-कभी बहुत सरल और सहज बना देती  हैं। लेकिन न जाने वे आकृतियाँ उस पगडंडी पर कब कहाँ किस मोड़ विलीन हो जाती हैं और उसे अकेला छोड़ जाती हैं। वे आकृतियाँ अपने गुणों को नाव की पतवार की तरह मनुष्य के हाथों में थमा जीवन की पर बहती नाव के रूप में उसके निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाती हैं।

 

       सच कितने ही दृश्यों के साथ मैंने अपने जीवन को निर्धारित किया है। जीवन की पगडंडी पर कितनी ही आकृतियों के साथ कदम-से-कदम मिलाए हैं। न जाने कितनी ही आकृतियों के गुणों का ग्राहक बना आज भी अपनी जीवनधारा पर बह रहा हूँ। अनेक नई आकृतियाँ जहाँ आज मेरे साथ हैं, वहीं अनेक पुरानी आकृतियाँ इस पगडंडी पर मुझे छोड़कर अनंत में विलीन हो गई या कहूँ मुझे रास्ता दिखाकर अपनी राह चल पड़ीं। आज भी ये आकृतियाँ मेरे साथ नियमित कदमताल करती दिखाई देती हैं। मेरी आँखों में मेरे मन में अनेक यादों के साथ।

       एक ऐसी आकृति मेरे जीवन में अनायास आई और एक अमिट छाप बनकर हृदय पर अंकित हो गई। भगवती प्रसाद देवपुरा बाबूजी ऐसी ही आकृति थे, जिनके साथ जीवन की कुछ मुलाकातें अक्षुण्ण हैं। जो सदैव नवीनता को जन्म देती हैं। मझले कद की तपी कुंदन सी देह, न स्थूल न क्षीण। न वृहदाकार न वामना कृति। लगता जैसे बुद्ध के मध्यम मार्ग का अनुसरण ही नहीं प्रतिनिधित्व करने वाली इकाई हों। उन्नत माथे के शिखर से तेलासिक्त चमकते श्याम श्वेत केशों की पटुलियाँ सिर के पीछे की ओर अनुशासनबद्ध हो सधी होतीं। उन्नत भाल पर ऊर्ध्वाकार खिंची रेखाएँ मस्तक पर एक तिलक सजाती थीं, ऐसा लगता था, मानो स्वयं श्रीनाथजी ने अपने भक्त के मस्तक पर तिलक खींच दिया हो।

    मस्तक के नीचे छोटी-छोटी भौंहों पर मोटे फ्रेम के चश्मे में गहनता से लवरेज आँखों में पूरे परिवेश को समेटने की एक चाहत नजर आती। पूरे पर्यावरण को स्वयं में समाहित करने की ललक उन आँखों में दिखाई पड़ती। गालों के चिकने उभारों के किनारों से उतरती हुई लकीरें उस व्यक्तित्व के स्वरूप को अनुभव युक्त बनाती थीं। एक सधी नासिका के आधार पर उठा काला मस्सा एवं मुखारविंद को सुंदरता प्रदान करते रक्तवर्णी मुसकान बिखेरते पतले होंठ उस चेहरे की सुंदरता को बढ़ा देते। संपूर्ण मुख-मंडल पर मुसकान के पर चिंतन की मुद्रा वे अकसर दिखाई देते। लंबे सफेद कुरते और सूती धोती के बाने में लिपटी उस बुजुर्ग काया को देखकर कोई भी कह सकता था, धारा हिंदी भाषा का वह कर्मयोगी श्रीनाथजी का अनन्य उपासक और कर्मठता की प्रतिमूर्ति देवपुरा जी यही हैं। साथ-साथ स्वयं में मग्न एक योगी संत-मुनि के दर्शन होते।

       देवपुरा बाबूजी से प्रथम मुलाकात ब्रज भाषा अकादमी की साधारण बैठक में हुई। मुख पर अतुल्य आभा के साथ मुसकान। वही ऐनक के शीशे में सभी कुछ समेटने को लालायित गंभीर चिंतन दृष्टि वही कुरता-धोती में सीधी-सादी सरल वेशभूषा। मिलने में सभी से प्रसन्नतापूर्वक मधुर मुसकान के साथ अर्थपूर्ण वार्तालाप को मैंने उनमें पाया। मैंने चरण स्पर्श किए तो उन्होंने अपना धर्म निभाते हुए मुझे आशीर्वाद दिया। मेरा परिचय जानकर कुशल-क्षेम इसी प्रकार पूछी जैसे मेरा उनसे बहुत पुराना परिचय हो। तब उन्होंने मेरे साहित्य के बारे में जाना। उन्हें बहुत खुशी हुई, जब उन्हें पता चला मैं छंद भी लिखता हूँ, तब उन्होंने मुझे फरवरी में होने वाले पाटोत्सव समारोह के लिए आमंत्रित भी कर डाला। मैंने भी बिना क्षण गँवाए सहर्ष स्वीकृति दे दी।

      कुछ समय पश्चात् बैठक हुई। मैंने बाबूजी के विषय में जैसा सुना था, उस दिन वैसा ही पाया। अकादमी उपाध्यक्ष के चुनाव के लिए बाबूजी ने वरिष्ठ साहित्यकार रामशरण पीतलियाजी का नाम प्रस्तावित किया। एक योग्यता के साथ निर्भीकता, स्पष्टवादिता और स्वाभिमान को लोक मर्यादा के निर्वहन के साथ मैंने बाबूजी में पाया। उस दिन जहाँ सभी एक ओर थे, वहीं अकेले बाबूजी के अपने जीवन-मूल्यों और सिद्धांतों को मैंने सभी के समक्ष अडिग देखा।

     उस दिन मैंने माना कि प्रेमचंद द्वारा लिखा वह वाक्य सौ प्रतिशत सत्य है। प्रेमचंद ने कभी लिखा था-साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। आज बाबूजी स्वयं एक मशाल बनकर सामने खड़े थे। निडर और बेखौफ। एक महापुरुष की तरह वह सबकुछ कर गए, जो भी वे कर सकते थे। इस समय कुछ बहसें भी हुईं। कुछ बातें भी हुईं। लेकिन अंगद के पाँव की भाँति बाबूजी अपने प्रस्ताव पर अडिग थे। वहीं संख्या में ज्यादा होकर भी दूसरा पलड़ा हलके से हलका होता चला गया और बाबूजी के आगे झुक गया। उनका प्रस्ताव पारित हुआ। सत्य की जीत हुई या बाबूजी की, यह तो मुझे पता नहीं, लेकिन बाबूजी को न तो इस जीत से कोई उत्साह व उल्लास था, न ही कोई खुशी। बस उनका कहना था, उपयुक्त पात्र ही इन पदों पर होना चाहिए।

        पाटोत्सव ब्रजभाषा आयोजन में समस्या पूर्ति कार्यक्रम में मेरा जाना तय हुआ। सुबह का चला हुआ मैं बस से संझा समय नाथद्वारा पहुँचा। अँधेरे में चमचमाते बाजार और दुकानों के आगे से मैं साहित्य मंडल के धुँधले में लिपटे प्रांगण में पहुँचा। सघन वृच्छादित वाटिका के मध्य बने इस खूबसूरत इमारत और उसके सामने बने प्रांगण में उस विराट् व्यक्तित्व को उसी सीधे-साधे लिवास में मैंने देखा। वे कुछ आवश्यक कार्यों को पूर्ण कर रहे थे। उस शाम जहाँ में युवा होकर भी एक थकान का अनुभव कर रहा था, वहीं बाबूजी पर अनवरत श्रम के पश्चात् भी थकावट का एक निशान भी दिखाई नहीं दिया। उन्होंने बड़ी गर्मजोशी के साथ मेरा स्वागत किया। चेहरे पर आत्मीयता के भावों के साथ मैंने उनका प्रेम भी पाया। शायद उस दो दिवसीय कार्यक्रम में बाबूजी सर्वाधिक वरिष्ठ थे तो मैं सबसे युवा था। अतः उनका प्रेम मुझ पर सर्वाधिक रहा।

      दूसरे दिन पत्र-पत्रिकाओं की प्रदर्शनी के समय सिर्फ एक मैं ही वहाँ अनायास उपस्थित हो गया था। बाबूजी मेरे निकट आए और बोले, देखिए, यहाँ पधारे साहित्यिकों में से कोई भी अभी तक इस प्रदर्शनी को देखने नहीं आया। ये साहित्य की सेवा कैसे करेंगे ?

     बाबूजी को यह ज्यादा रुचिकर नहीं लगा। वह दुःखी मन से प्रेक्षागार की तरफ बढ़ गए। लेकिन उन्होंने यह शिकायत किसी भी साहित्यकार विद्वान् से नहीं की। उस कार्यक्रम में मैंने उनका प्रबंधन कौशल देखा। सभी को पृथक् पृथक् जिम्मेदारियाँ सौंपी थीं। सभी कुशलतापूर्वक उन का निर्वहन कर रहे थे। अपने कार्य के प्रति गहरी निष्ठा, विनम्रता और उदारता को मैंने बाबूजी में देखी। लेकिन जो गुण बाबूजी का मुझे प्रभावित कर गया, वह था समय का अनुशासन। 

         समय  के महत्त्व को बाबूजी बखूबी जानते थे। प्रातः नौ बजते ही कार्यक्रम की शुरुआत कर देना। माइक पर आवाज लगाकर अतिथियों को मंच पर आमंत्रित करना। चाहे प्रेक्षागार में तीन-चार श्रोता ही क्यों न बैठे हों। समयावधि से वक्ता को एक सेकंड भी आगे बढ़ते ही वे अपनी घड़ी को देखने लगते। वक्ता के न हटने पर कठोर होते हुए उन्हें अपना वक्तव्य खत्म करने का आदेश भी दे देते। मैंने बाबूजी को स्वयं समय अनुशासन की परिधि में देखा। मैंने देखा नियत समय पर कार्यक्रम का शुरू होना और नियत समय पर ही कार्यक्रम का समापन करना उनकी विशेषता थी।

      उनकी बोली में मेवाड़ी पुट होता था। अतः शुरुआत में उनका व्यवहार मुझे कुछ कठोर लगा। लेकिन सच में बाबूजी के मन में बहुत ही प्रेम था, विनम्रता थी और अपनों के प्रति लगाव था। एक बार सलूंबर से लौटते हुए मैं नाथद्वारा आया। मंदिर दर्शन कर मैं और मेरे साथी निश्चल बाबूजी से मिलने उनकी दुकान पर पहुँचे। उस समय बाबूजी अपने प्रतिष्ठान में अध्ययनरत थे। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर मुसकान आ गई। कोई अपना मिला हो, वह इस प्रकार स्वागत के लिए खड़े हो गए। मैंने चरण स्पर्श किए थे, तो उन्होंने हमेशा कि तरह मेरे सिर पर अपना हाथ रख दिया। जलपान और कुछ साहित्यिक चर्चा के बाद निश्चलजी उदयपुर लौट गए। मैं करीब दो घंटे तक बाबूजी के साथ ही रहा।

      बाबूजी के अकसर पैरों में दर्द होता था। लेकिन उनके मन और तन में एक फुर्ती सदैव दिखाई देती थी। मुझे वह आज भी थके हुए नहीं लगे। लगन और कर्तव्यनिष्ठा में उनके कोई कमी नहीं थी। मैं जब चलने को हुआ तो बाबूजी मुझे विदा करने दुकान से बाहर आए। श्रीनाथजी के प्रसाद का लड्डू मेरे हाथ में रखते हुए बोले, "यह बींदणी और बच्चों के लिए है। मथुरा ले जाना।" मैंने प्रसाद रख लिया और आगे बढ़ गया। बाबूजी वहीं मूर्तिवत् खड़े रहे। एक प्रेम की डोर बाबूजी ने उस दिन ऐसी बाँधी, जिसमें मैं साहित्य मंडल से बँध गया। श्रीनाथजी से बंध गया और श्यामजी से बँध गया।

     यह बंधन अपनों को पहचान लेता है। यह बंधन अपनों की खुशबू में सबकुछ पा जाता है। मोहनस्वरूपजी भाटिया के अभिनंदन ग्रंथों के विमोचन के अवसर पर मेरा और पत्नी रिचा का उस कार्यक्रम में पहुँचना हुआ। हम दोनों देरी से पहुँचे थे। वैसे भी न मेरा वहाँ आमंत्रण था और न ही मेरा उस कार्यक्रम से कोई प्रयोजन। सिर्फ मुद्गल बाबा ने मुझे किसी कार्य के लिए बुलाया था। बाबा से मुलाकात हो चुकी थी और हम बाहर निकलने को थे। 

      तभी रिचा की नजर दूर मंच पर आसीन बाबूजी पर पड़ी। "बाबूजी आए हैं।" 

       मैंने कहा, "वे भला क्यों आएँगे !" 

    "नहीं मुझे तो वही लग रहे हैं।" उसने पूर्ण विश्वास से कहा। 

      मैंने कहा, "बाबूजी मुश्किल ही आएँगे। उनकी तबीयत भी इतनी अच्छी नहीं है कि वे इस कार्यक्रम में आएँ।" लेकिन रिचा के अति विश्वास के आगे मैं नत हो गया। कार्यक्रम खत्म करने तक हम दोनों ने इंतजार किया। कार्यक्रम के समापन पर उस भीड़ में मैंने श्याम भैया के हाथ को पकड़े हुए उस संकल्पित कर्मयोगी को धीरे-धीरे प्रेक्षागार से बाहर आते हुए देखा।

       मन में अपार हर्ष था तो चेहरे पर खुशी का समंदर लहरें लेने लगा। चरण स्पर्श के पश्चात् एक खुशी, श्याम भैया से मुलाकात, बाबूजी का प्रेम पुनः पाया। अपनी कुछ असमर्थता जताते हुए बाबूजी ने मेरे साथ घर आने के अनुरोध को अगली बार पर टाल दिया। हमने एक छोटी मुलाकात की, लेकिन वह मुलाकात बहुत आत्मीय मुलाकात थी।

इस मुलाकात के पश्चात् बाबूजी ने मथुरा आने का मुझे वचन भी दिया। लेकिन दो महीने पश्चात् छह जनवरी को मुद्गल बाबा के फोन से मुझे पता चला, देवपुरा बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं रहे। 

      हिंदी साहित्य का वह महान् पुरोधा आज अपनी संपूर्ण यात्रा पूर्ण कर इस दुनिया से विदा हो चला था। बिंदु से सिंधु बना वह व्यक्तित्व आज सिंधु से बिंदु में समाहित हो गया था। आँखों के आगे बाबूजी के भी समस्त चित्र एक फिल्म की तरह घूमने लगे। उनका वही मुसकान बिखेरता चेहरा बार-बार आँखों के आगे घूमने लगा।

      बाबूजी चले गए। मेरे जीवन की पगडंडी को थोड़ा और विस्तार देकर। कुछ नए तरीके से जीवन को सजाकर। आज भी बाबूजी को याद करता हूँ, तो पाता हूँ, प्रत्येक मनुष्य इस जीवन में अपने तरीके से प्रगति करता है। अपने तरीके से जीवन को जीता है। कभी-कभी अपनी क्षमता से अधिक करता है तो कभी अपनी क्षमताओं को खो देता है। आयु के हर पड़ाव पर उसी क्षमता के साथ बढ़ते जाना, किसी के लिए संभव नहीं होता। लेकिन मैंने बाबूजी में इस असंभव को भी संभव होते देखा। उनमें वही जोश, जुनून, वही जज्बात देखे, जो शुरू में थे और अंत तक यथावत् रहे। कितने ही तनाव और दबाव उनके जीवन में आए, लेकिन उनके मध्य बड़ी जीवटता के साथ वे मुसकराते हुए अपने कर्तव्यों के प्रति सदैव समर्पित रहे।

          तभी तो वे आज इसी जीवटता का पाठ हमें पढ़ाते दिखाई देते हैं। उनकी यादों का एक-एक पल, एक कक्षा-कक्ष बनकर सामने आ खुलता है। जिसमें जीवन की पगडंडी पर एक आकृति कुछ पढ़ाती है और शायद मैं हाँ मैं ही वहाँ कुछ सीखता दिखाई देता हूँ।


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