GMCH STORIES

भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में राजभाषा हिंदी में पढ़ाई को लेकर जंग 

( Read 588 Times)

12 Jul 25
Share |
Print This Page

भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में राजभाषा हिंदी में पढ़ाई को लेकर जंग 

गोपेन्द्र नाथ भट्ट 

भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में प्राइमरी स्कूलों में राजभाषा हिन्दी भाषा की शिक्षा को लेकर राजनीतिक जंग छिड़ी हुई है । इसकी शुरुआत उस वक़्त हुई जब पिछले दिनों महाराष्ट्र सरकार के शिक्षा विभाग ने स्कूलों में कक्षा एक में तीसरी भाषा के रूप में हिंदी सिखाने का फ़ैसला लिया। अब तक राज्य में मराठी और अंग्रेज़ी ही पहली कक्षा से सिखाई जाती रही है। जैसे ही यह फ़ैसला सामने आया, महाराष्ट्र में राजनीति गरम हो गई। स्कूल में पहली से तीसरी कक्षा तक हिंदी भाषा सिखाने के महाराष्ट्र सरकार के फ़ैसले पर विरोध ने देखते ही देखते आंदोलन का रूप ले लिया. जिस मुंबई में भाषा की राजनीति का मुद्दा पहले भी गरम रहा हो, वहां इस मुद्दे पर हिंसा की घटनाएं भी सामने आईं।

इस विवाद पर पहले तो महाराष्ट्र सरकार ने कहा कि केंद्र सरकार की नई शिक्षा नीति के अन्तर्गत है 'त्रिभाषा फॉर्मूला के तहत पहली कक्षा से ही तीन भाषाएं पढ़ाने का प्रावधान है फिर भाषा और शिक्षा के कई विशेषज्ञों ने इसका विरोध किया और कहा कि पहली कक्षा के बच्चों के लिए यह आसान नहीं होगा. शिवसेना (उद्धव ठाकरे) और राज ठाकरे की मनसे जैसी पार्टियों ने तो इसका विरोध किया ही, शिक्षा से जुड़े कई संगठनों और राजनीतिक दलों ने भी आंदोलन शुरू कर दिया।

दशकों से महाराष्ट्र में चलने वाली भाषा की राजनीति का असर सड़कों पर भी देखने को मिला और मराठी के अलावा दूसरी भाषाएं बोलने वालों पर हमले हुए।पिछले हफ़्ते भाषा विवाद से जुड़ी कम से कम तीन घटनाएं मुंबई और आस-पास के इलाकों में हुई हैं। इन घटनाओं में शामिल होने का आरोप राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) और पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की पार्टी शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे) के कार्यकर्ताओं पर लगा है

लेकिन दोनों दलों का कहना है कि वे किसी भाषा के ख़िलाफ़ नहीं हैं और अहिंसा का रास्ता अपनाते हुए विरोध कर रहे हैं।

इसके बाद मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने 29 जून को राज्य सरकार के पहली कक्षा से 'तीसरी भाषा' पढ़ाने के फ़ैसले को वापस ले लिया और इसके लिए डॉ. नरेंद्र जाधव कमेटी बनाने का ऐलान भी किया। साथ ही कहा कि अगर कुछ स्टूडेंट्स तीसरी भाषा चुनना चाहते हैं, तो चुन सकते हैं। लेकिन इससे बावजूद भी विरोध पर कोई असर नहीं पड़ा और अंततः सरकार को कहना पड़ा कि स्कूलों में हिन्दी पढ़ाने को लेकर सरकार का निर्णय अन्तिम फैसला नहीं है।

चार जुलाई को महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और गृह मंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा कि, "महाराष्ट्र में मराठी भाषा का अभिमान रखना कोई ग़लत बात नहीं है. लेकिन भाषा के चलते अगर कोई गुंडागर्दी करेगा तो उसे हम नहीं सहेंगे. कोई भाषा के नाम पर मारपीट करेगा तो उसे भी सहा नहीं जाएगा. पुलिस ने कार्रवाई की है और अगर आगे भी ऐसा हुआ तो क़ानून के मुताबिक़ कार्रवाई होगी. हमें भी मराठी का अभिमान है मगर देश की किसी भी अन्य भाषा के साथ अन्याय नहीं किया जा सकता, यह भी ध्यान में रखना चाहिए."

भाषा के इस मुद्दे ने महाराष्ट्र की राजनीति में एक नई तस्वीर सामने आई है। वर्ष 2009 से एक-दूसरे के ख़िलाफ़ राजनीति करने वाले उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे ने भाषा के आंदोलन के लिए एक साथ एक मंच पर आ गए है।पांच जुलाई को उद्धव और राज ठाकरे ने राज्य सरकार के ख़िलाफ़ अपने आंदोलन के लिए मुंबई में रैली आयोजित की।मराठी और हिंदी को लेकर पैदा हुए हालात से मराठी आंदोलन से जुड़े साहित्यकार भी चिंतित हैं. उन्हें लगता है कि जो मुद्दा किसी भाषा की शिक्षा से जुड़ा हुआ है, वह ऐसी घटनाओं से ग़ैर-ज़रूरी राजनीति में क्यों बदल जाता है.

उल्लेखनीय है कि महाराष्ट्र में यहां तक कि मुम्बई में भी मराठी भाषी लोगों की संख्या सबसे अधिक है, मगर हिंदी और गुजराती समेत अन्य भारतीय भाषाएं बोलने वाले लोग भी कई साल से यहां रह रहे हैं.व्यापार या फिर नौकरी के लिए यहां आ कर बसे ऐसे परिवारों की संख्या अब यहां की राजनीति में भी अहम हो गई है।

राजनीतिक पर्यवेक्षकों के अनुसार यह राजनीति के साथ एक भावनात्मक मुद्दा भी है । मराठी भाषा और संस्कृति महाराष्ट्र की पहचान है। लोग डरते हैं कि हिन्दी का आधिकारिक दबाव बढ़ने से मराठी भाषा का महत्व कम हो जाएगा।भाषा केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पहचान होती है। कई मराठी लोग मानते हैं कि हिन्दी भाषी आबादी का तेजी से शहरीकरण (खासकर मुंबई में) मराठी बोलने वालों को पीछे धकेल रहा है।उन्हें लगता है हिन्दी थोपने से उनकी भाषा “दूसरे दर्जे” की हो जाएगी। 1960से 70 के दशक में “मराठी अस्मिता” को लेकर बहुत आंदोलन हुए । जैसे “सामना” और “शिवसेना” की शुरुआत भी मराठी मानुस के अधिकार के नारे से ही हुई। “हिन्दी-प्रचार” के नाम पर तत्कालीन केंद्र सरकार के दबाव के खिलाफ भी आवाज उठी। महाराष्ट्र में कई राजनीतिक दल इस भावना का समर्थन करके अपना आधार मजबूत करते हैं।महाराष्ट्र जैसे राज्यों को लगता है कि हिन्दी थोपने की नीति “केंद्र का राज्यों पर सांस्कृतिक नियंत्रण” है। भारत संघीय व्यवस्था है और हर राज्य को अपनी भाषा चुनने का हक है।

मुंबई में उत्तर भारतीय प्रवासियों की बहुत बड़ी आबादी है।मराठी समूहों का आरोप है कि हिन्दी प्रचार और हिन्दीभाषी आबादी के कारण मराठी स्कूल, सिनेमा, अख़बार कमजोर होते गए।

इसलिए हिन्दी के प्रचार के हर कदम पर कुछ लोग संदेह करते हैं।महाराष्ट्र में हिन्दी स्कूलों और कॉलेजों की संख्या बढ़ने से डर है कि मराठी भाषा पढ़ने वाले छात्र घट जाएंगे।“तीन-भाषा सूत्र” में हिन्दी के अनिवार्य होने पर भी आपत्ति होती है।लेकिन यह भी सच है महाराष्ट्र में करोड़ों लोग हिन्दी बोलते और समझते हैं। हिन्दी फिल्मों, गानों, मीडिया की बहुत मांग है। विरोध “हिन्दी सीखने” के खिलाफ नहीं, बल्कि “हिन्दी को थोपने” के खिलाफ है।महाराष्ट्र में हिन्दी का विरोध हिन्दी भाषा से नफरत नहीं है – यह मराठी भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए हिन्दी के थोपे जाने का विरोध है।वर्तमान स्थिति में शिवसेना (उद्धव गुट) आज ज्यादा उदार हो गई है।हिन्दीभाषी वोट बैंक भी उनके साथ है। उद्धव ठाकरे और आदित्य ठाकरे हिन्दीभाषी रैलियां करते हैं। उनका रुख – “हिन्दी विरोधी नहीं, लेकिन मराठी प्राथमिकता।”राज ठाकरे की मनसे भी अब हिन्दी पर कम और मुस्लिम मुद्दों पर ज्यादा आक्रामक है।शिवसेना और ठाकरे बंधु हिन्दी भाषा से नफरत नहीं करते। वे हिन्दी को महाराष्ट्र में अनिवार्य और हावी किए जाने के खिलाफ हैं। उनका मुख्य मुद्दा मराठी अस्मिता, मराठी भाषा और मुंबई में मराठी पहचान को बचाना है। 

उल्लेखनीय है कि भारत के दक्षिण के राज्यों में हिंदी भाषा को लेकर हमेशा विरोध की राजनीति चलती रही है। हाल यह एक विडंबना ही है कि हिंदुस्तान में राजभाषा हिन्दी को वह महत्व नहीं मिल रहा जिसकी वह हकदार है ।


Source :
This Article/News is also avaliable in following categories :
Your Comments ! Share Your Openion

You May Like