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आत्मबोध से विश्व बोध   डॉ. अपर्णा पाण्डेय, कोटा,राजस्थान 

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06 Nov 25
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आत्मबोध से विश्व बोध    डॉ. अपर्णा पाण्डेय, कोटा,राजस्थान 

   " अयम्  निज:परोवेति, गणना लघु चेतसाम्।
उदार चरितानाम् तु,वसुधैव कुटुम्बकम्।।" चाणक्य नीति 

 यह चिंतन भारतीय संस्कृति की रीढ़ है‌। जैसे  रीढ़ के बिना  शरीर पंगु है उसी  प्रकार उदारता, प्रेम, दया ,करुणा ,स्नेह ,परहित, समाज -सेवा जैसे भावों से रहित मनुष्य का जीवन भी व्यर्थ है ।भारतीय चिंतन में विश्व कल्याण की भावना सर्वोपरि है ।जब तक मनुष्य आत्म चिंतन नहीं करता, तब तक वह अपना परिष्कार नहीं कर सकता। और आत्म परिष्कार के बिना विश्व का कल्याण भला कैसे हो सकता है ?यह दैवीय गुण मनुष्य में तभी उत्पन्न होते हैं, जब वह सर्व हितकारी ,लोकोपकारी चिंतन करता है ।जब तक मनुष्य अपने उद्धार के विषय में विचार नहीं करता, तब तक वह विश्व के कल्याण के विषय में भी विचार नहीं कर सकता।
 क्योंकि आत्मानुभूति हुए बिना दूसरे के दुख की अनुभूति नहीं हो सकती ।

महाभारत, विदुर नीति,पद्म पुराण (19/3573-58)जैसे शास्त्रों में कहा गया है-
"आत्मन:प्रतिकूलानि  परेषां न समाचरेत्।"
 जो आप अपने साथ नहीं चाहते हैं, वैसा  व्यवहार दूसरों के साथ भी ना करें ।

श्रीमदभगवत गीता में भी यही कहा है-
 कि जो मनुष्य अपना आत्म कल्याण चाहता है वही विश्व कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है ।
"उद्धरेत् आत्मानं नात्मानं अवसादयेत्।
 आत्मैव हि आत्मनो बंधु:, आत्मैव रिपुरात्मन:।।"6/5

  मनुष्य जो समाज की प्रथम इकाई है; मनुष्य से परिवार; परिवार से समाज और समाज से राष्ट्र का निर्माण होता है। 
राष्ट्रीय उत्थान के लिए मानवीय गुणों से दैवीय गुणों की ओर अग्रसर होना प्रत्येक प्राणी की प्राथमिकता होनी चाहिए। भारतीय संस्कृति में मनुष्य से लेकर के प्रत्येक प्राणी हित चिंतन की बात को ध्यान में रखकर भी सभी के कल्याण की प्रार्थना की गई है । 
बृहदारण्यक, तैत्तिरीय उपनिषद्, भविष्य पुराण, गरुड़ पुराण से लिया गया यह मंत्र सामूहिक कल्याण की भावना से ओतप्रोत है -
  "सर्वे भवंतु सुखिनः ,सर्वे संतु निरामया:।"

 यह विचार वही कर सकता है जो संसार के प्रत्येक कण-कण में ईश्वर के स्वरूप को देखता हो।

   हमारे यहां ऋषियों ने कहा -कि संपूर्ण सृष्टि जड़ और चेतन आपस में एक माला की तरह जुड़े हुए हैं ।जब  पंच महाभूत स्वस्थ और स्वच्छ रहेंगे ,तभी पंचमहाभूत से निर्मित यह सृष्टि भी स्वस्थ और स्वच्छ रह सकती है। यह तभी संभव है जब हम आत्म कल्याण से विश्व कल्याण का चिंतन करेंगे।
 इसलिए ऋषियों ने कहा-  आकाश में ,पृथ्वी में, जल में, अंतरिक्ष में, औषधियों में, वनस्पतियों में सर्वत्र शांति स्थापित हो।              इतना गूढ़ गंभीर चिंतन वही समाज दे सकता है, जो बहुत संवेदनशील हो ।अन्यथा तो मनुष्य में हमेशा ही स्वार्थ भाव प्रबल रहता है ।तामसिक शक्तियां जागृत रहती हैं ।अपना हित ही प्रमुख रहता है ।
  संघ का कार्य स्तुत्य है।जो सदैव राष्ट्रीय चेतना को प्रत्येक मनुष्य में जागृत करने का पुनीत कार्य करता रहा है। जो राष्ट्र प्रेम से सराबोर असंख्य भारतीयों को मां भारती के चरणों में अपने आप को समर्पित करने का आह्वान करता रहा है ‌।
"भद्रम् कर्णेभि: श्रृणुयाम् देवा:"
यजुर्वेद 25/21
का उद्घोष असंख्य कण्ठों से निनादित हो हमारे चित्त को पवित्र और व्यवहार को राष्ट्रीयता से ओत- प्रोत कर सके ‌। राष्ट्र -आराधन कर सके। 
हम अपने कानों से हमेशा भद्र सुनें ।अपने हाथों से संसार के लिए भद्र (कल्याण) का कार्य करें, यह तभी संभव है ,जब हम अपने चरित्र को मानवीयता से परिपूर्ण कर सकेंगे। ‌।  
जैसे एक कड़ी से दूसरी कड़ी जुड़ती जाती है वैसे ही राष्ट्र को संगठित करने के लिए हमारा मन ,वचन और कर्म राष्ट्र हित में अग्रसर हो। यही ध्येय होना चाहिए 

"संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।"
            ऋग्वेद 10/191वांसूक्त
यह वह मंत्र है जो  वैदिक काल से संपूर्ण भारत को एकता के सूत्र बांधता रहा है ।जहां हमारा चिंतन एक मार्ग पर अग्रसर होकर राष्ट्रहित के लिए प्रवाहित होता है ।प्राचीन समय में भी जब देश अलग-अलग खंडों में विभाजित था, तब भी  राष्ट्रीय एकता को सुदृढ करने के लिए हमारे ऋषियों ने ,आचार्यों ने छात्रों में राष्ट्रीयता का भाव  भरा ‌; ताकि देश बढ़ता रहे ।
  उन गुरुओं में आचार्य चाणक्य का नाम सर्वोपरि है ‌।
श्रीमद्भगवत गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं-
"यो  माम् पश्यति सर्वत्र,सर्वम् च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि,स च मे न‌ प्रणश्यति।।6/30

वेदों में राष्ट्र को एक ब्रह्म के स्वरूप में देखा गया है ।और कहा है -राष्ट्रीय एकता बलवती हो ‌यहां के लोग तेजस्वी हों।यशस्वी हों। क्षत्रिय धर्म को धारण करें ।शत्रुओं का विनाश करें ‌यहां असीम समृद्धि व्याप्त हो। यहां के नागरिक बलवान ,योद्धा और राष्ट्रभक्त  हों।प्रकृति हमारे देश को धन और धान्य से परिपूर्ण करे ।
हम सत्य के मार्ग पर अग्रसर हों।तमस के मार्ग से प्रकाश के मार्ग पर अग्रसर हों ‌ और मृत्यु के मार्ग से अमृत के मार्ग  पर अग्रसर हों। संपूर्ण विश्व में ज्ञान ,प्रेम ,करुणा तेज का दीप  प्रज्ज्वलित करते रहे हैं और आने वाले समय में भी करते रहेंगे।
 हिंदी में भीअनेक कवियों नेराष्ट्रीय एकता का स्वर बुलंद किया और जनता में राष्ट्रीयता का भाव भरा। माखनलाल चतुर्वेदी , श्याम नारायण पांडे ,रामधारी सिंह "दिनकर"  मैथिली शरण गुप्त या जयशंकर प्रसाद हों इन सभी कवियों ने लिखने के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना को ही प्रमुख रूप में प्रस्तुत किया ।
 जनता को देश के लिए संगठित होने का भाव दिया ।हमारे देश में जब-जब भी अन्याय ,अत्याचारों ,शोषण के मेघ आच्छादित हुए तब तब कवियों और लेखकों ने अपनी असिवत् प्रहार करने वाली लेखनी का प्रयोग कर आत्मबोध की भावना को भरने का महत्वपूर्ण कार्य किया।
 राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त के शब्दों में -
"हम कौन थे ,क्या हो गए और क्या होंगे अभी?
आओ! मिलकर के विचारें , ये समस्याएं सभी।।‌"
राष्ट्रीयता के भाव को प्रज्ज्वलित करते हुए राष्ट्र कवि रामधारी सिंह "दिनकर" लिखते हैं-
 "मही नहीं जीवित है मिट्टी से डरने वालों से, जीवित हैवह उसे फूंक सोना करने वालों से।"कुरूक्षेत्र 
राष्ट्र प्रेम एक धारा, एक प्रवाह है ,जो अपने साथ बड़े से बड़े व्यवधानों को उखाड़ कर ले जाती है।जन आंदोलन के रूप में जब जब भी हिंसा का तांडव होता है ,तब कुछ ऐसे मानवतावादी साहित्यकार और लेखक उत्पन्न होते हैं जो समाज को मनुष्यता के पथ पर चलने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। महाकवि तुलसीदास जी लिखते हैं -
"सब नर करहिं परस्पर प्रीति। 
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति।।" रामचरितमानस
 ऐसा चिंतन केवल भारतीय साहित्यकार ही दे सकता है ‌जो आत्मबोध से विश्वबोध को जगाने का भाव  रखता हो ,ऐसा दैवीय आभा से ओतप्रोत मेरा देश सदैव विश्व के हित चिंतन में रत है। 


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