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ईश्वरीय वेदज्ञान: धर्म और श्रेष्ठ आचरण का मूल स्रोत

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12 Jul 25
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ईश्वरीय वेदज्ञान: धर्म और श्रेष्ठ आचरण का मूल स्रोत

धर्म का मूल क्या है? क्या वह किसी परंपरा, समुदाय या बाह्य आडंबर में है, या वह मनुष्य के भीतर श्रेष्ठ विचार और आचरण का नाम है? इन प्रश्नों के उत्तर वैदिक दृष्टिकोण से खोजे जाएं, तो यह स्पष्ट होता है कि धर्म सत्य और ईश्वरीय ज्ञान के अनुरूप आचरण का नाम है। ऋषि दयानन्द सरस्वती और मनुस्मृति के श्लोकों के माध्यम से यह विषय अत्यंत स्पष्ट रूप में प्रकट होता है।

वेद – धर्म का आधार
ऋषि दयानन्द ने वेदों को धर्म का सर्वोच्च प्रमाण बताया है। उनके अनुसार, वेदों में निहित ज्ञान ही मनुष्य के श्रेष्ठ व शुभ कर्मों का निर्देश देता है। यही कारण है कि धर्म केवल अच्छे आचरणों का नाम है और अधर्म उन कार्यों का जो आत्मा को पतन की ओर ले जाते हैं। सदाचार ही धर्म है और असदाचार अधर्म। मनुष्य को अपने कर्मों को सत्य और विद्या के आधार पर तय करना चाहिए, तभी मोक्ष की प्राप्ति संभव है।

कर्म और आत्मा की प्रेरणा
ऋषि बताते हैं कि मनुष्य के कर्म दो स्तरों पर संचालित होते हैं—बाह्य और आंतरिक। बाह्य रूप में हम हाथ, पैर, नेत्र आदि का प्रयोग करते हैं, परन्तु उनके पीछे कामना, संकल्प और आत्मा की प्रेरणा होती है। आत्मा में यदि किसी कर्म को करने में भय, शंका और लज्जा उत्पन्न होती है, तो वह कर्म अधार्मिक है। वहीं, जिस कर्म को करने में आत्मा प्रसन्न रहती है, वह धर्म है। आत्मा में यह चेतना परमात्मा की सर्वव्यापकता का प्रमाण है।

पूर्ण निष्कामता की असंभवता
यह भी स्पष्ट किया गया है कि पूर्ण निष्कामता संभव नहीं है। यज्ञ, व्रत, सत्यभाषण, नियम आदि सभी एक उद्देश्य या कामना की पूर्ति के लिए होते हैं। कामना रहित होना एक भ्रम है; अतः उचित है कि मनुष्य शुभ कामनाओं के साथ ही कर्म करें और वेदोक्त मार्ग पर चलें।

श्रुति, स्मृति और सत्पुरुषों का आचरण
मनु ने चार लक्षणों को धर्म का आधार बताया—वेद (श्रुति), वेदानुकूल स्मृति, सत्पुरुषों का आचरण, और आत्मा की प्रसन्नता। यदि कोई मनुष्य इनका तिरस्कार करता है, तो उसे समाज से बहिष्कृत किया जाना चाहिए क्योंकि वह वैचारिक प्रदूषण फैलाता है। वेद और धर्मग्रंथों की निंदा करने वाला व्यक्ति नास्तिक कहलाता है।

धर्म का लक्ष्य – आत्मा और समाज का कल्याण
धर्म केवल व्यक्तिगत मोक्ष की बात नहीं करता, बल्कि समाजहित और परोपकार का मार्ग दिखाता है। ऋषि दयानन्द कहते हैं कि मनुष्य को त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए समाज के हित के कार्य करने चाहिए। धर्म में समानता का सिद्धांत भी निहित है—हर आत्मा समान है, इसलिए किसी को अपने कर्मों से पीड़ा नहीं पहुंचानी चाहिए।

उपसंहार
धर्म का स्वरूप केवल धार्मिक ग्रंथों के वाचन में नहीं, बल्कि सत्य, विद्या और श्रेष्ठ आचरण में है। वेद और मनुस्मृति का अध्ययन कर मनुष्य को अपने कर्तव्य और अकर्तव्य की पहचान करनी चाहिए। वेद ही वह परम प्रमाण हैं जो धर्म का मार्ग प्रशस्त करते हैं, और मनुष्यता को अपने चरम लक्ष्य—मोक्ष व कीर्ति—की ओर ले जाते हैं।

संदेश:
इस लेख के माध्यम से लेखक ने सत्यार्थप्रकाश के दसवें समुल्लास, मनुस्मृति के श्लोकों और ऋषि दयानन्द के विचारों को आधार बनाते हुए स्पष्ट किया है कि धर्म न तो परंपरा में है और न मतों में—वह केवल सत्यज्ञान, सदाचार और आत्मा की संतुष्टि में है। यही सच्चा वैदिक धर्म है।


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