मरूप्रदेश की जैसलमेर रियासत प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक वैभव एवं बेजोड रीति-रिवाजों के लिये खास पहचान रखती है। यहां के मेलों और त्यौहारों की खुशी के मौके गीत, संगीत, नृत्य परिधान आभूषण एवं खान-पान आदि की सरिता प्रकट होकर सजीव हो उठती है। यों तो जैसलमेर अपने स्थापत्य सौन्दर्य के लिये पर्यटन के क्षेत्र में विश्व विख्यात है पर जैसलमेर की गणगौर (गवर) के शाही नजारे की बात निराली थी। उस लवाजमे का शोभायात्रा का सौंदर्य अनुपम था।
मरू क्षेत्र की अनूठी आन, मान और शान की मनभावन झलक गणगौर के लवाजमे में देखने को मिलती थी। इस मेले में राजा से लेकर आम आदमी शामिल होकर अपनी भागीदारी निभाता था। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से शाही लवाजमा निकलना बंद हो गया है
आज भी चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन आम जनता दुर्ग के दशहरा चौक में एकत्रित होती है। यहाँ जैसलमेर के कृष्ण वंशी भाटी महारावल पधारते है तथा गवर की मूर्ति की परम्परानुसार पूजा-अर्चना करते थे।
राज्य के अन्य जिलों की भांति जैसलमेर की युवतियां भी सोलह दिन पहले से गणगौर की पूजा आरम्भ कर देती है। इस मौके पर युवतियां खूब सजती-संवरती है। मन-भावन गीत गाती है साथ ही सखियां एक दूसरे से तन-मन को भाने वाली ठिठोलियां भी करती है। चैत्र सुदी तृतीया के दिन मूर्तियों को गडीसर तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है
जैसलमेर की शाही गवर के साथ ईसर (गवर) की मूर्ति नहीं है। बडे-बुजुर्ग बताते है कि कोई एक सौ साठ वर्ष पूर्व जैसलमेर के ईसर की मूर्ति को बीकानेर के महाराजा ने स्थानीय महारावल से आपसी दुश्मनी होने के कारण उठवा ली उसके बाद गवर के लिए दूसरी ईसर की मूर्ति का निर्माण आज तक नहीं करवाया गया । इसका मुख्य कारण यह था कि उस जमाने में एक औरत के लिए दूसरा विवाह या पुरूष हेय दृष्टि से देखा जाता था। यही बात गवर की मूर्ति के लिए भी लागू हुई। अतः जैसलमेर की शाही गवर आज भी अकेली है। गवर की मूर्ति बडी आकर्षक बनी हुई है, सुहागवती नारी का सम्पूर्ण श्रृंगार किया हुआ है। गवर को सोने, हीरे, मोतियों से बने गहने पहनाएं हुए है। गले में निम्बोली एवं हार, कानों में झुमके, सिर पर बोरिया, नाक में नकडी व हाथों में भुजबंद्ध शोभायमान है। बहुमूल्य वस्त्र भी खूब आकर्षक है। नजर हटाए नहीं हटती ।
जहां राजस्थान के अन्य जिलों में गणगौर की सवारियां या मेले चैत्र सुदी तृतीया को भरते है वहीं जैसलमेर में चैत्र सुदी चतुर्थी को शाही लवाजमे की परंपरा थी। इस दिन किले के महलों से गवर की मूर्ति को बाहर निकाला जाता है, जनता के दर्शन के लिए।
किले से ही सांय को शोभा यात्रा निकलती थी। गवर की मूर्ति को एक औरत सिर पर उठाए होती। शोभा यात्रा में सबसे आगे घोडों पर बैठे सवार नगाडे बजाते थे। इनके पीछे श्रृंगारित ऊँट और इनके पीछे जैसलमेर के लोक गायक मंगणियार अपने वाद्य-पत्रों को बजाते हुए मंगल गायन करते थे साथ ही बैंड-बाजों वाले व नृत्यांगनाएं भी नृत्य मुद्राओं में होती थी । राजपरिवार के निकटवर्ती सदस्य भी इसमें शाही वस्त्र पहन कर शामिल होते थे। महारावल स्वर्गीय श्री बृजराजसिंह जी स्वयं एक घोडे पर विराजमान होते थे तथा आम जनता का अभिवादन स्वीकार करते थे। आम लोग महारावल के जयकारे करते थे।
गांवों के पूर्व जागीरदार, जमींदार, ठाकुर भी शामिल होते थे। वें रंग-बिरंगी पगडियां बांधे कुर्ता टेवटा पहने मूंछों को बट दिए बडे मस्ताने दिखते थे। अनेक भाटी राजपूतों के हाथों में अस्त्र-शस्त्र होते है। इस लवाजमे की शोभा देखते ही बनती थी। नगर की सडकें दर्शकों से भर जाती थी। लोग अपनी छतों पर चढकर पुष्प वर्ष करते थे। ठुमक-ठुमक करती यह शोभा-यात्रा प्राचीन जल स्त्रोत गडीसर पहुंचती थी। जहां गवर की विधिवत पूजा होती थी। फिर वह लवाजमा पुनः दुर्ग में पहुंचता था।