ईश्वर प्रदत्त इस दुनिया में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य समाज में रहता है और समाज के हिसाब से अपने जीवन को ढालता है। समाज अनेक वर्गों में विभाजित है । देश में अलग-अलग जातियां हैं और सबका अपना-अपना समाज है। अक्सर मैं देखती हूं लोग कहते हैं हमारा समाज ऐसा हमारा समाज ऊंचाइयों पर है हमारा समाज प्रगति पर है इस अलाप को समाज के ठेकेदार खूब गाते हुए दिखाई पड़ते हैं।
सबसे पहला प्रश्न तो मेरा यही है कि समाज में कितनी सहानुभूति है? इसका उत्तर मैं यह दे सकती हूं समाज सहानुभूति के नाम पर सिर्फ सिर्फ ढकोसले कर सकता है लेकिन वास्तविक सहानुभूति नहीं दिखा सकता है क्योंकि उसमें वास्तविक सहानुभूति होती ही नहीं है।
जैसा की विषय रखा गया है अपाहिज अब हम इस पर चर्चा करते हैं । अगर कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से कमजोर है तो समाज के लोग उसे अपाहिज, लूला लंगड़ा, विकलांग इत्यादि नाम से संबोधित करते है।
उसे समाज का सबसे कमजोर प्राणी माना जाता है और साथ में यह भी माना जाता है कि वह समाज के काबिल नहीं है और उसे जीने का अधिकार नहीं है यहां तक की जितना जल्दी हो सके उसका मर जाना ही सबसे बढ़िया मानते हैं। अगर कोई संतान शारीरिक रूप से असक्षम है ऐसे में उसके माता-पिता अपने बच्चे के लिए अपना दायित्व निभाते हैं लेकिन समाज का यहां पर क्या रोल है जिससे रूबरू हम कराते हैं आपको
समाज कहता है कि आपका बच्चा असक्षम है जीवन भर आपका बच्चा आपको परेशान करता रहेगा ऐसे में आप उसे जहर दे दीजिए या कहीं अनाथालय में उसे छोड़ कर आ जाइए। लेकिन आप इसे पालिए नहीं।
समाज ऐसे बच्चों के लिए सहानुभूति के दो शब्द भी कहता हुआ नजर नहीं आता है लेकिन ऐसे शब्द जरूर कहता है जो उस बच्चे को और अधिक से अधिक तोड़ने का काम करते हैं पहले से ही वह शारीरिक रूप से असक्षम है मन से भी उसे तोड़ने का काम समाज करता है। अगर असक्षम बालक या बालिका ईश्वर और अपने घर वालों की मदद से कुछ करने की कोशिश भी करता है तब भी समाज के लोगों की आंखों में वह अखरने लगता है और समाज उस पर तानों की बौछार करने लगता है। समाज कुछ इस तरह से कहता हुआ नजर आता है अरे तू क्या कर लेगा या कर लेगी तू तो अच्छे से सक्षम भी नहीं है शारीरिक तौर पर। असक्षम चाहे बालक हो या बालिका उसे निरंतर बहने वाली सरिता की तरह ही उसके जीवन में अपमान रुपी सरिता अविरल गति से बहती चली जाती है। शारीरिक तौर पर अक्षम बालक या बालिका क्या चाहता है ? इसका उत्तर बड़ा ही सीधा है उत्तर कुछ इस प्रकार है शारीरिक तौर पर असक्षम बालक हो या बालिका उसके मन की इच्छा यही होती है कि समाज उसे समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा माने, उसे भेदवादी दृष्टि से ना देखा जाए, उसे कुछ भी खैरात में नहीं चाहिए वह भीख नहीं मांगना चाहता है बस अपने हक के लिए खड़ा होना चाहता है ऐसे में समाज उसका सहयोगी बने ना कि उसके खिलाफ खड़ा हो। समाज उसके स्वावलंबी बनने में उसका सहयोग करें और उसे हेय दृष्टि से ना देखें।
समाज का सहयोग जब शारीरिक तौर पर असक्षम बालक या बालिका को मिलने लगेगा तब समाज में परिवर्तन आने लगेगा क्योंकि ईश्वर प्रद्धत इस दुनिया का प्रत्येक प्राणी अपने आप में खूबसूरत है और किसी न किसी उद्देश्य को पूरा करने हेतु ही ईश्वर द्वारा उसे संसार में भेजा गया है ऐसे में किसी भी प्राणी को कम आंकना भला कहां तक उचित है? प्रश्न उठता है कि समाज के ठेकेदार बने हुए जो बड़े-बड़े लोग मंच पर बड़े-बड़े भाषण देते हुए दिखाई देते हैं वह कितने ऐसे बालक बालिकाओं को आगे बढ़ाने हेतु कार्य करते हैं।
सटीक उत्तर यही हो सकता है की ऐसे बालक बालिकाओं आगे बढ़ाने हेतु समाज के ठेकेदारों द्वारा कोई कार्य नहीं किया जा रहा है यह बड़ा ही शर्मनाक है बड़ा ही चिंतनीय में है । मेरा मानना है कि समाज के ठेकेदारों का दुर्भाग्य है कि ऐसा पुनीत कार्य करने में वह अक्षम है मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि शारीरिक तौर पर असक्षम कहलाने वाले बालक बालिका असक्षम नहीं बल्कि समाज के ठेकेदार असक्षम है वे इन बालक बालिकाओं की स्थिति से भली भांति परिचित है लेकिन वह देख कर भी अनदेखा कर देते हैं तो वह मेरी नजरों में सक्षम होकर भी असक्षम है। आवश्यकता है समाज में परिवर्तन लाने की अपनी सोच में बदलाव लाने की ताकि शारीरिक तौर पर असक्षम भी समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा बन सके और समाज को आगे बढ़ाने में उसकी प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सके।