डॉ. कृष्णा कुमारी समकालीन कवयित्रियों में अपनी पृथक् रचनादृस्टि के कारण विशेष पहचान रखती हैं । आप कोटा की चम्बल नदी की सतत प्रवाहित अथाह जलराशि में उठने वाली विविध भावतरंगों को जीने वाली कवयित्री हैं।
इनकी कविताओं से गुज़रने पर मैंने पाया कि ' प्रेम ' इनकी कविताओं का बीज शब्द है । वे मनुष्य , प्रकृति , जीवन , प्रियतम के साथ - साथ अपने घर - परिवार और स्वयं की अस्मिता से बेहद प्यार करती हैं ।
कवयित्री कृष्णा कुमारी के प्रकाशित कविता - संग्रह इस प्रकार हैं :
' मैं पुजारिन हूँ ' ,' कितनी बार कहा है तुमसे ' , ' तो हम क्या करें ' ,' जंगल में फाग ' और ' बहुत प्यार करते हैं शब्द ' । आप काव्यविधा में गीत , कविता और ग़ज़ल लिखती हैं । गद्य की विविध विधाओं में भी आपने खूब लिखा है।
मैंने डॉ. कृष्णा कुमारी को शब्द - साधिका यूँ ही नहीं कहा । वे उपयुक्त शब्द की तलाश में लगी रहती हैं । इतना ही नहीं , वे शब्द की ध्वनियों , अर्थछवियों और अनुगूँजों को पकड़ती हैं और अपने लेखन में सही जगह पर सही शब्दों का इस्तेमाल करती हैं ।
कृष्णा कुमारी की बहुत सी कविताएँ - मसलन ' बहुत प्यार करते हैं शब्द ' , ' शब्दों के घर ' , ' शब्दों के चोर ' , ' शब्द जानते हैं कि ' , ' शब्द नहीं जानते ' , ' शब्दों का व्यापार ' और ' शब्द और हम ' मेरी उपर्युक्त बात की साक्षी कविताएँ हैं।
कवयित्री कृष्णा कुमारी अपने कविता - संग्रह की शीर्षक कविता ' बहुत प्यार करते हैं शब्द ' में कहती हैं :
शब्द जब
रीझ पड़ते हैं किसी पर
बह निकलते हैं भावुकता में
तब बिखर जाते हैं मोतियों की तरह ।
बहुत करते हैं प्यार / मनुहार
रोते हैं गले लग - लग कर
शब्द की सार्थकता उसमें निहित अर्थ से है। शब्द और अर्थ का ' गिरा - अर्थ जल - वीचि सम ' गहरा संबंध होता है । कहने का आशय यह है कि जैसे जल और लहर का अटूट संबंध होता है वैसे ही शब्द और अर्थ का संबंध होता है। कृष्णा जी ' शब्दों के घर ' कविता में लिखती हैं :
बिना अर्थ के तो हो जाएगा ' अनर्थ '
हो जाएंगे हम कंगाल
जैसे बिना जल के सागर ।
शब्द नहीं जानते
रंग भेद / वर्ग भेद
ये जाति से
धर्म से
ऊँच - नीच से
दूर हैं इतने
जितनी धरती से नीहारिकाएँ ।
कवयित्री को प्रकृति से बेहद लगाव है । वे प्रकृति के सौंदर्य को घंटों बैठकर निहारती है । उसकी विविध भंगिमाओं - मुद्राओं को देख कर मुग्ध हो जाती हैं और डूब कर उन पर कविताएँ लिखती हैं । प्रकृति के बिम्ब स्वतः कागज़ पर उतरने लगते हैं । मुझे ऐसी कविताएँ पढ़ते हुए प्रकृति - प्रेमी कवि सुमित्रानंदन पंत याद आने लगते हैं। वे ' चाँदनी रात में नौका विहार ' जैसा ही आनंद कश्मीर की ' डल लेक ' में हाउस बोट की सैर करते हुए कविता के रचाव के ज़रिए उठाती हैं।
कवयित्री कृष्णा कुमारी अपनी कविता ' हे डल झील ! ' में लिखती हैं ':
हे डल झील !
बहुत बिंदास हो तुम
ख़ूबसूरत भी बला की
तुम्हारी तो बूंद - बूंद में
जैसे कशिश ।
साक्षी हो तुम समय की
देखे हैं तुमने
कई उतार - चढ़ाव
सच कहूँ तो कश्मीर का
सारा इतिहास पढ़ा जा सकता है
सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारी आँखों में।
कृष्णा जी की ' खुशी इन चिड़ियों का नाम है ' , ' जीने दो पर्वतों को ' ,' तुम सागर हो ' , ' बीज हैं ' , ' पेड़ और चिड़िया ' , ' बसंत ' , ' वर्षा - गीत ' , ' अरे ओ फागुन ' आदि कविताएँ उनके प्रकृति प्रेम की परिचायक हैं।
कृष्णा कुमारी की ' भूख और कविता ' , ' बहुत दिनों के बाद ' , ' बेचारी ' , ' वेदना " और ' सरहदें ' जैसी कविताएँ लोकधर्मी और जनचरित्री कविताएँ हैं । जहाँ उनकी समाज के दलित - पीड़ित और वंचित वर्ग के प्रति प्रतिबद्धता नज़र आती है।
' सरहदें ' शीर्षक कविता में वे मनुष्य को सीमाओं में बांध कर , अलगाव का भाव पैदा कर परस्पर युद्ध की आग में झौंकने का सख़्त विरोध व्यक्त करती हैं । वे बहुत ठीक लिखती हैं :
सरहदें हैं
इसलिए नफरते हैं
नफरतें हैं
इसलिए दहशतें हैं
ये सरहदें आई कहाँ से ???
हाँ , एक बात और जिसकी ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है । कृष्णा जी की ' बिग - बी ' और ' पतंग ' शृंखला की कविताएं सामान्य हैं । फ़िल्म , फिल्मी गाने के बोल और सिनेमा के नायक - नायिका पर कविताएँ लिखना या कविता में प्रयोग करने से जहाँ तक हो सके गंभीर कविता - कर्म में संलग्न कवयित्री को इनसे बचना चाहिए ।
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ साहिब ठीक फ़रमाते हैं :
' और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा । '
यह मेरा भी विनम्र सुझाव है। बहरहाल।
जहाँ तक इनकी काव्यभाषा और शिल्प का सवाल है , कृष्णा की कविताएँ हिंदी - उर्दू - अंग्रज़ी की तिरंगी छटा लिए सहज संप्रेषणीय कविताएँ हैं। शिल्प सधा हुआ है । ऐंद्रिक क्रियाशील बिम्ब विधान इन्हें श्रव्य और दृश्य का वैशिष्टय प्रदान करता है।
मैं आश्वस्त हूँ कि हिंदी - जगत कवयित्री डॉ. कृष्णा कुमारी के हाल ही में वर्ष 2023 में प्रकाशित कविता - संग्रह ' बहुत प्यार करते हैं शब्द ' का हृदय से स्वागत करेगा।