गोपेन्द्र नाथ भट्ट
भारत में विशेष कर देश की राजधानी नई दिल्ली एवं आसपास के इलाकों में प्रदूषण के हालातों को देखते हुए कई देशों द्वारा अपने नागरिकों की भारत यात्रा पर एडवाइजरी जारी करना बहुत चिंताजनक और देश की प्रतिष्ठा के लिए भी एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है। दीपावली के बाद सर्दियों के आगमन के साथ ही हर वर्ष दिल्ली वायु प्रदूषण और स्मोग की समस्या से जकड़ जाती है। इस बार भी दिल्ली–एनसीआर में वायु प्रदूषण एक बार फिर गंभीर और खतरनाक स्तर पर पहुँच चुका है। सर्दियों के आगमन के साथ ही धुंध और स्मॉग की चादर राजधानी को अपनी गिरफ्त में ले लेती है। सांस लेना दूभर हो जाता है, आँखों में जलन, गले में खराश और दमा जैसी बीमारियों के मरीजों की संख्या बढ़ जाती है। इसी पृष्ठभूमि में दिल्ली के प्रदूषण का मुद्दा संसद के शीतकालीन सत्र में प्रमुखता से उठा है और पक्ष प्रतिपक्ष ने एक मत से इस पर चर्चा की मन बनाया है। केन्द्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेन्द्र यादव इस विषय पर संसद में बयान देने जा रहे हैं। यह बयान न केवल सरकार की स्थिति स्पष्ट करेगा, बल्कि भविष्य की रणनीति का भी संकेत देगा।
दिल्ली में वायु प्रदूषण कोई नया संकट नहीं है, लेकिन हर साल इसकी तीव्रता बढ़ती जा रही है। वाहनों की बढ़ती संख्या, औद्योगिक उत्सर्जन, निर्माण कार्यों से उठने वाली धूल, खुले में कचरा और बायोमास जलाना तथा मौसमीय परिस्थितियाँ—ये सभी मिलकर प्रदूषण को जानलेवा बना देते हैं। अक्टूबर से दिसंबर के बीच हवा की गति कम हो जाती है, तापमान गिरता है और प्रदूषक कण वातावरण में लंबे समय तक बने रहते हैं। इसका सीधा असर बच्चों, बुजुर्गों और पहले से बीमार लोगों पर पड़ता है। संसद में इस मुद्दे पर चर्चा इसलिए भी जरूरी हो जाती है क्योंकि वायु प्रदूषण अब केवल पर्यावरण का नहीं, बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और आर्थिक उत्पादकता का भी बड़ा संकट बन चुका है। विपक्ष लगातार सरकार से सवाल कर रहा है कि हर साल आपात उपाय तो किए जाते हैं, लेकिन स्थायी समाधान क्यों नहीं निकल पा रहा। इसी संदर्भ में भूपेन्द्र यादव का संसद में दिया जाने वाला बयान महत्वपूर्ण माना जा रहा है।
भूपेन्द्र यादव पहले भी संसद और सार्वजनिक मंचों से यह स्पष्ट कर चुके हैं कि दिल्ली– एनसीआर में प्रदूषण के लिए केवल पराली जलाने को दोषी ठहराना सही नहीं है। उनके अनुसार स्थानीय स्रोत जैसे वाहन उत्सर्जन, निर्माण और धूल, औद्योगिक गतिविधियाँ तथा घरेलू ईंधन प्रदूषण के प्रमुख कारण हैं। संसद में दिए जाने वाले बयान में भी उनके द्वारा इसी तर्क को आंकड़ों और सरकारी रिपोर्टों के आधार पर सामने रखने की संभावना है। इससे यह संदेश जाएगा कि समस्या बहुआयामी है और समाधान भी बहुस्तरीय होना चाहिए।केंद्रीय मंत्री यह भी रेखांकित कर सकते हैं कि केंद्र सरकार ने वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कई संस्थागत और नीतिगत कदम उठाए हैं। वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग का गठन, ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) का क्रियान्वयन, पुराने और प्रदूषणकारी वाहनों पर रोक, निर्माण कार्यों में धूल नियंत्रण के नियमये सभी प्रयास इसी दिशा में हैं। संसद में सरकार यह बताने की कोशिश करेगी कि केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के बीच समन्वय के बिना इस समस्या का समाधान संभव नहीं है।
हालांकि, केवल योजनाओं और नियमों की घोषणा से जनता का भरोसा नहीं बनता। दिल्ली के लोग हर साल यही सवाल करते हैं कि क्या अगले वर्ष भी यही हाल होगा? भूपेन्द्र यादव का बयान इसलिए अहम है क्योंकि उससे यह अपेक्षा की जा रही है कि सरकार दीर्घकालिक रोडमैप पेश करे। सार्वजनिक परिवहन को और मजबूत करना, इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देना, शहरी हरित क्षेत्रों का विस्तार, औद्योगिक उत्सर्जन पर सख्त निगरानी और नागरिकों की भागीदारी—ये ऐसे बिंदु हैं जिन पर संसद में ठोस चर्चा की जरूरत है।प्रदूषण का राजनीतिकरण भी एक बड़ी समस्या है। केंद्र और राज्य सरकारें अक्सर एक-दूसरे पर जिम्मेदारी डालती नजर आती हैं। संसद में भूपेन्द्र यादव का बयान यदि सहयोग और साझा जिम्मेदारी पर जोर देता है, तो यह एक सकारात्मक संकेत होगा। वायु प्रदूषण की चुनौती किसी एक सरकार या विभाग से नहीं सुलझ सकती; इसके लिए नीति, प्रशासन और समाज—तीनों की संयुक्त भूमिका आवश्यक है।
अंततः, दिल्ली का प्रदूषण संकट यह याद दिलाता है कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कितना जरूरी है। संसद में होने वाली बहस और भूपेन्द्र यादव का बयान केवल औपचारिक प्रक्रिया नहीं होना चाहिए, बल्कि यह जनता के स्वास्थ्य से जुड़ा गंभीर संवाद बने। यदि इस चर्चा से ठोस, समयबद्ध और जवाबदेह कदम निकलते हैं, तभी कहा जा सकेगा कि संसद ने दिल्ली की जहरीली हवा के खिलाफ सचमुच जिम्मेदारी निभाई है।
हालांकि इस मुद्दे पर लोकसभा और राज्यसभा दोनों में चर्चा हो रही है।संसद के शीतकालीन सत्र में दिल्ली-एनसीआर के वायु प्रदूषण को गंभीर मुद्दा माना जा रहा है और इस पर नियम 193 के तहत चर्चा की सहमति सरकार ने दे दी है, यानी बिना मतदान के खुलकर चर्चा। दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक (ए क्यू आई ) लगातार 450+ यानी अत्यंत खतरनाक स्तर के ऊपर बना हुआ है,जिससे जनता के लिए सांस लेना भी कठिन हो गया है। प्रदूषण की इस स्थिति के कारण कार्यालयों में शिफ्ट वर्क, वाहनों पर प्रतिबंध, निर्माण कार्यों का अवकाश, तथा स्कूलों का हाइब्रिड/ऑनलाइन होना जैसे आपात उपाय लागू किए गए हैं। दिल्ली की रेखा गुप्ता सरकार भी अपने स्तर पर प्रदूषण नियंत्रण के उपाय कर रही है। केन्द्र सरकार ने वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग और ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान (ग्रेप) जैसे तंत्र लागू किए हैं। पुराने वाहनों को हटाने, ट्रैफिक हॉटस्पॉट्स पर सुधार, अवैध इंडस्ट्री पर कार्रवाई, निर्माण धूल नियंत्रण एवं एनसीआर में समन्वित उपायों पर काम जारी है। सरकार ने
आदेश दिया है कि अक्टूबर से दिसंबर तक पूरे एन सी आर में निर्माण कार्य और डिमोलिशन (तोड़ने) आदि काम रोक दिए गए है ताकि धूल उत्सर्जन कम हो। सभी एजेंसियों को मिशन मोड में काम कर ए क्यूं आई में अगले 1 वर्ष में 40 प्रतिशत की कमी हासिल करने का निर्देश दिया गया है। प्रदूषण की वजह से दिल्ली वासियों में श्वसन सम्बन्धी परेशानियाँ बढ़ी हुई हैं और अस्थमा जैसे मामलों में बढ़ोतरी देखी जा रही है। धुंध और कोहरे से सड़क दुर्घटनाएं बढ़ रही है।प्रदूषण की समस्या से बाजारों और रोज़गार पर भी प्रभाव पड़ा है क्योंकि लोग बाहर कम निकल रहे हैं। दिल्ली सरकार के पर्यावरण मंत्री मनजिंदर सिंह सिरसा ने प्रदूषण के लिए दिल्ली-सरकार की चुनौतियों को स्वीकार करते हुए जनता से माफी भी मांगी है।
पर्यावरणविदों का मानना है कि यदि समय रहते प्रदूषण की समस्या को नियंत्रित नहीं किया तो विश्व में भारत की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। देखना है सरकार इस बार किस तरह के उपाय कर इस गंभीर समस्या से निजात दिलाएगी।