विश्व धरोहर सप्ताह के अन्तर्गतजनार्दनराय नागर राजथान विद्यापीठ (डीम्ड टू बी विश्वविद्यालय), उदयपुर के संघटक साहित्य संस्थान में 19 नवम्बर, 2025 से विश्व धरोहर सप्ताह मनाया जा रहा है, जिसके अन्तर्गत संस्थान के पुरातात्विक संग्रहालय में पुरातात्विक गतिविधयों का संचालन किया जा रहा है और विभिन्न संगठनों और संस्थाओं से लोगों का आना जाना जारी है। इसी गतिविधियों के अन्तर्गत प्रागैतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरों का प्रर्दशन किया गया। संस्थान निदशक प्रो. जीवनसिंह खरकवाल ने बताया कि विश्व धरोहर सप्ताह के उद्घाटन सत्र में विश्व विद्यालय के कृलगृरु ने साहित्य संस्थान के पुरातात्विक संग्रहालय में क्यूआर कोड को उद्घाटित किया था। उसके बाद संग्रहालय में निरन्तर लोगों के अवलाकन का क्रम बना हुआ है। कार्यक्रम के संयोजक डाॅ. कुलशेखर व्यास ने बताया कि सप्ताह के दूसरे दिन शिशुवन विद्यालय, मुम्बई से आए लगभग 130 विद्यार्थियों के साथ लगभग 20 शिक्षकों ने संस्थान के पुरातात्विक संग्रहालय एवं अभिलेखागार का अवलोकन किया। संग्रहालय एवं अभिलेखागार में प्रदर्शित पुरातात्विक अवशेषों एवं पाण्डुलिपियों को देख कर सभी अभिभूत हो गए और उनके मुख से अनायास ही वाह शब्द निकल पड़े।
साहित्य संस्थान में प्रागैतिहासिक सांस्कृतिक धरोहरों और तकनीक प्रदर्शनी का प्रदर्शन
हेरिटेज वीक के अवसर पर संस्थान ने पाषाण युग से सम्बन्धित अपनी महत्वपूर्ण पुरावशेष संग्रह का प्रदर्शन किया, जिसमें बूंदी, चित्तौड़गढ़, और जैसलमेर क्षेत्रों से प्राप्त पुरापाषाण उपकरण और अन्य सांस्कृतिक सामग्री शामिल थीं। यह संग्रह राजस्थान की तकनीकी विविधता और दीर्घ सांस्कृतिक विकास क्रम को प्रदर्शित करता है।
भारतीय प्रागैतिहासिक काल की समय गहराई लाखों वर्षों तक फैली हुई है-उपमहाद्वीप के कई क्षेत्रों में लगभग 1.5 से 2 मिलियन वर्ष पूर्व तक के मानव पूर्वज आदिमानव गतिविधियों के पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। प्रारम्भिक पुरापाषाण परम्पराएँ हस्त कुठार तकनीक मध्य पाषाण चरणों का विकास तथा बाद में सूक्ष्म उपकरण परम्परा का उद्भव इस विस्तृत सांस्कृतिक यात्रा के प्रमुख चरण हैं। राजस्थान इस क्रम को समझाने में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
संग्रहालय में प्रस्तुत सामग्री भारतीय प्रगैतिहासिक काल की इस प्रचीनता को थार मरुस्थल, डीडवान-जयालबेसिन तथा हाड़ोती पठार (बूंदी), बेड़च नदी (चित्तौड़) जैसे प्रमुख क्षेत्रों के सन्दर्भ में ¬प्रदर्शित करती है। ये क्षेत्र प्रारम्भिक पुरापाषाण से धातु युग तक के समृद्ध पुरातात्विक साक्ष्य के लिए प्रसिद्ध है। इस वर्ष की प्रदर्शिनी में विशेष आकर्षण के रूप में प्राचीन औजार निर्माण तकनीकी की प्रतिकृति भी शामिल थी, जिसमें आगन्तुकों को पाषाण औजार निर्माण की मूल प्रक्रियाओं (नियन्त्रित फलक निर्माण, औजार रूपांकन) को प्रत्यक्ष देखने और समझाने का अवसर मिला।
संस्थान द्वारा मध्य पाषाण और सूक्ष्म उपकरण (माइक्रोलिथिक) परम्पराओं के साक्ष्य तथा प्रतापगढ क्षेत्र की शैल चित्र परत्परा का भी सूव्यवस्थित प्रलेखन किया गया है, जो क्षेत्रिय सांस्कृतिक विकास की समझ को और व्यापक बनाता है।
अक्टूबर माह में संस्थान में एक पाषाण और निर्माण कार्यशाला भी आयोजित की गई। इसमें प्रतिभागियों को पाषाण औजार निर्माण तकनीक तथा अस्थि और लकड़ी से संयोजित उपकरण बनाने की प्रक्रियाओं पर व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया गया।
यह कार्यशाला डाॅ. शशि मेहरा और श्री प्रभाकर पाॅल द्वारा संचालित की गई। विभाग के शिक्षक संहयोगी डाॅ. रविन्द्र देवड़ा इस कार्यशाला के संयोजक रहे। इससे पूर्व वर्ष 2018 में डाॅ. शान्ति पप्पू और डाॅ. कुमार अखिलेश द्वारा भी इसी प्रकार की कार्यशाला आयोजित की गई थी, जिससे संस्थान में प्रायोगिक पुरातत्व की यह परम्परा और सुदृद्ध हुई है।