इतिहास में 16 दिसम्बर भारत का एक गौरवपूर्ण दिवस है। यह केवल एक सैन्य विजय का स्मरण नहीं, बल्कि त्याग, साहस, कूटनीति और मानवता के उच्चतम मूल्यों का जीवंत प्रतीक है। वर्ष 1971 में भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध निर्णायक युद्ध जीतकर न केवल अपने शौर्य और सामरिक क्षमता का परिचय दिया, बल्कि पड़ोसी पूर्वी पाकिस्तान को अमानवीय अत्याचारों से मुक्ति दिलाकर एक नए राष्ट्र बांग्लादेश के जन्म का मार्ग प्रशस्त किया। 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों का आत्मसमर्पण विश्व सैन्य इतिहास की एक अभूतपूर्व घटना है, जो भारतीय सेना की रणनीतिक दक्षता और अदम्य साहस को अमर करती है।
आज बांग्लादेश जिस स्वतंत्रता की खुली हवा में सांस ले रहा है और विजय दिवस मनाने का गर्व करता है, उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि यह आज़ादी भारतीय जवानों के रक्त, त्याग और बलिदान से संभव हुई है। भारत ने उस समय कोई स्वार्थ नहीं साधा। न भूमि का, न सत्ता का। उसने पड़ोसी होने के साथ-साथ मानवता का धर्म निभाया। लाखों शरणार्थियों को आश्रय दिया, अत्याचार के विरुद्ध विश्व मंच पर आवाज़ उठाई और एक संकटग्रस्त समाज को नया जीवन दिया। ऐसे में जब कुछ बांग्लादेशी वर्ग इस ऐतिहासिक सत्य को नकारने या उस पर राजनीति करने का प्रयास करते हैं, तो यह केवल इतिहास से विमुखता नहीं, बल्कि कृतघ्नता का भी द्योतक है। इतिहास को झुठलाया नहीं जा सकता, क्योंकि सत्य समय से बड़ा और स्थायी होता है।
वर्तमान परिस्थितियाँ विजय दिवस पर आत्मगौरव के साथ-साथ सतर्कता का संदेश भी देती हैं। आज भारत सैन्य शक्ति, तकनीकी क्षमता और कूटनीतिक सोच तीनों ही क्षेत्रों में पहले से कहीं अधिक सशक्त और आत्मविश्वासी है। वैश्विक मंचों पर भारत की भूमिका अब निर्णायक रूप ले रही है। ऐसे समय में राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़े विषयों, जैसे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (पीओके), पर दृढ़ इच्छाशक्ति, स्पष्ट नीति और राष्ट्रीय एकजुटता अनिवार्य है। राष्ट्र की अखंडता केवल सीमाओं से नहीं, बल्कि जागरूक नागरिक चेतना से सुरक्षित रहती है।
विजय दिवस की सबसे बड़ी शिक्षा हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए है। आज हमारे बच्चे और युवा मोबाइल, कंप्यूटर और आभासी दुनिया में अधिक उलझते जा रहे हैं। तकनीक आवश्यक है, परंतु केवल तकनीक से राष्ट्र का निर्माण नहीं होता। उन्हें देशभक्ति, सैनिकों के शौर्य, समाज कल्याण और नागरिक कर्तव्यों का बोध कराना होगा। स्कूलों और कॉलेजों में विजय दिवस जैसे ऐतिहासिक प्रसंगों को केवल औपचारिक कार्यक्रमों तक सीमित न रखकर, उन्हें विचार, संवाद और प्रेरणा का सशक्त माध्यम बनाया जाना चाहिए।
इज़राइल, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में बचपन से ही मातृभूमि के प्रति समर्पण, राष्ट्रीय अनुशासन और नागरिक कर्तव्य को शिक्षा का आधार बनाया जाता है। वहाँ राष्ट्र पहले होता है, व्यक्ति बाद में। भारत में भी अब ऐसी ही राष्ट्रनिष्ठ सोच विकसित करनी होगी। मातृभूमि, मातृभाषा और संस्कृति की रक्षा को सर्वोपरि मानना होगा। सैनिकों के बलिदान को केवल स्मारकों और भाषणों तक सीमित न रखकर, अपने आचरण, विचार और जीवन-मूल्यों में उतारना होगा।
विजय दिवस हमें यह स्मरण कराता है कि स्वतंत्रता, सम्मान और सुरक्षा स्थायी नहीं होते। इन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी सजगता, त्याग और दृढ़ संकल्प से सुरक्षित रखना पड़ता है। यही विजय दिवस का सच्चा अर्थ, उसकी विरासत और उसका शाश्वत संदेश है।