उदयपुर। भारतीय संस्कृति में आचार्यों और संतों की परंपरा अत्यंत प्राचीन और गौरवशाली रही है। समय-समय पर समाज में नैतिक पतन, सांस्कृतिक विचलन, हिंसा, अनैतिकता और आत्मविस्मृति की स्थिति जब उत्पन्न हुई, तब-तब अध्यात्म मार्ग के साधकों ने मानवता को नई दिशा प्रदान की। आधुनिक युग में जब भौतिकवाद की चकाचैंध ने मनुष्य के अंतःकरण को विचलित कर दिया है, ऐसे समय में संयम, करुणा, नैतिकता और मानवीय जीवन-मूल्यों के संवर्धन के लिए आचार्य महाश्रमण का जीवन और अवदान किसी दीपस्तंभ की भाँति मार्गदर्शन कर रहा है।
तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें आचार्य, योगी, शांतिदूत, नैतिक जागरण के प्रहरी और अणुव्रत आंदोलन के वर्तमान अनुशास्ता आचार्य महाश्रमण ने अपने तप, साधना, सरलता और सादगी से मानवता को अद्वितीय संदेश दिया है। उन्होंने न केवल हजारों किलोमीटर से अधिक की पदयात्रा कर करोड़ों लोगों के बीच हिंसा-त्याग, नैतिकता और संयम का संदेश दिया, बल्कि शाकाहार, नशामुक्ति, नैतिक अनुशासन, आत्मिक विकास और मानवीय सद्भाव को आधार बनाकर सामाजिक पुनरुत्थान का महाअभियान चलाया।
आचार्य महाश्रमण का जन्म 13 मई 1962 को सरदारशहर (राजस्थान) में हुआ। उनका बचपन का नाम मोहन था। उनके पिता का नाम झूमरमल और माता का नाम नेमा देवी था। बचपन से ही वे गंभीर, शांत और जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे। 12 वर्ष की अल्प आयु में उनका दीक्षा-संस्कार हुआ और वे जैन साधु पथ पर अग्रसर हुए। आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ जैसे महान संतों के सान्निध्य में रहते हुए उन्होंने आध्यात्मिक जीवन, साधना और तप से स्वयं को पल्लवित किया।
उनका व्यक्तित्व सहज, सौम्य, विनम्र और तेजस्वी है। वर्षों की साधना के द्वारा प्राप्त उनके वचन लोगों के हृदय में उतर जाते हैं। उन्होंने न केवल दर्शन और अध्यात्म को व्याख्यायित किया, बल्कि उसे आमजन के जीवन से जोड़कर प्रस्तुत किया।
1949 में आचार्य तुलसी द्वारा प्रारंभ अणुव्रत आंदोलन का मूल उद्देश्य चरित्र निर्माण और नैतिकता का विकास था। इस आंदोलन को 21वीं सदी में वैश्विक विस्तार देने का कार्य आचार्य महाश्रमण ने अत्यंत सफलतापूर्वक किया। समाज में नैतिक क्षरण और मूल्यहीनता की तीव्रता को देखते हुए उन्होंने यह स्पष्ट कहा, ष्मानव चरित्रहीन हो जाए तो समाज में शांति और समरसता संभव नहीं।ष् अणुव्रत आंदोलन के माध्यम से उन्होंने सभी समुदायों, धर्मों, जातियों और वर्गों के लोगों तक यह संदेश पहुँचाया कि धर्म का सार व्यवहार में है, केवल मान्यता में नहीं।
इस आंदोलन में धर्म की संकीर्णता नहीं, बल्कि मानवीयता का व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत होता है।आचार्य महाश्रमण का सबसे महान योगदान है-अहिंसा यात्रा। उन्होंने 2014-2023 तक की अहिंसा यात्रा में लगभग 50,000 किमी की यात्रा की। प्रभाव क्षेत्र भारत के अनेक राज्य, भूटान और नेपाल थे। वर्षों तक निरंतर पैदल चलते हुए उन्होंने समाज को तीन मूल संदेश नशामुक्ति, सद्भावना, नैतिकता दिए।
उन्होंने लाखों लोगों को नशामुक्ति की प्रतिज्ञा करवाई। हजारों लोगों ने शराब, तंबाकू और नशे को त्यागकर नया जीवन आरंभ किया। जिन क्षेत्रों में हिंसा और सामाजिक असामंजस्य था, वहां उनके संदेश ने लोकमानस को शांत किया। उनकी उपस्थिति मात्र से अनेक सामाजिक विवाद भी शांत हुए। यह यात्रा इतिहास में नैतिक जागरण का सबसे व्यापक अभियान मानी जा सकती है।
आचार्य श्री ने देखा कि आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में ज्ञान तो है पर चरित्र नहीं। बुद्धि तो है, पर संवेदना नहीं। इस संकट को दूर करने के लिए उन्होंने प्रेक्षाध्यान और जीवन विज्ञान को विद्यालयों, विश्वविद्यालयों और संस्थानों में शामिल करवाने का अभियान चलाया। जीवन विज्ञान का उद्देश्य हैकृ आत्म- संयम, भावनात्मक संतुलन, मानवीय संवेदनाओं का विकास, विवेकपूर्ण जीवन-निर्णय
आज अनेक शिक्षण संस्थान, प्रशासनिक प्रशिक्षण केंद्र और विश्वविद्यालय इन्हें अपनाकर युवाओं में विवेक, धैर्य और आत्मनियंत्रण का विकास कर रहे हैं।
आचार्यश्री ने स्पष्ट कहा, ष्धरती सभी जीवों की है, मनुष्य मात्र उसका स्वामी नहीं।ष् उन्होंने शाकाहार को केवल भोजन-प्रणाली नहीं, बल्कि कृपा, करुणा और सहअस्तित्व का मार्ग बताया। उनके प्रेरक संदेशों के कारण हजारों लोगों ने मांसाहार छोड़कर शाकाहार को अपनाया। उन्होंने पृथ्वी, जल, वनस्पति और जीव-जंतु संरक्षण की चेतना को समाज में जीवंत किया। पर्यावरण दिवस, मौसम परिवर्तन और जल संरक्षण जैसे विषयों पर उन्होंने राष्ट्र को चेताया, ष्यदि पृथ्वी की रक्षा करनी है तो अपने श्लोभश् और श्उपभोगश् पर संयम आवश्यक है। ष्
समाज में सबसे बड़ी बुराई हैकृ नशा । नशा व्यक्ति को मानसिक, आर्थिक, सामाजिक और आत्मिक रूप से तोड़ देता है। आचार्य महाश्रमण ने इसे केवल सामाजिक समस्या न मानकर मानवता का संकट कहा। उन्होंने लाखों लोगों को यह संकल्प दिलवाया- ष्हम किसी भी प्रकार का नशा नहीं करेंगे।ष् कई गाँवों और शहरों में शराब की दुकानों को बंद करवाने की दिशा में उनके प्रेरक प्रवचनों का महत्वपूर्ण प्रभाव देखा गया। ग्रामीण और शहरी समाज दोनों में नशामुक्ति आंदोलन ने नई चेतना का संचार किया।
उनका साहित्यिक अवदान अत्यंत समृद्ध, सारगर्भित और जीवन-प्रेरक है। उन्होंने अपने अनुभवों, साधना और चिंतन के आधार पर जो साहित्य सृजित किया, वह केवल जैन दर्शन या धर्म तक सीमित नहीं है, बल्कि सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों, नैतिकता, आत्मानुशासन और शांति की राह दिखाने वाला है। उनके साहित्य में सरलता, स्पष्टता, तर्कशीलता और संवेदनशीलता का सुंदर सामंजस्य मिलता है।
आचार्य श्री ने अणुव्रत आंदोलन को व्यापक बनाने में अपने साहित्य को एक माध्यम के रूप में अपनाया। उनके लेखन में अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, नशामुक्ति और चरित्र निर्माण जैसे विषय केंद्रीय रूप से आते हैं। उन्होंने अणुव्रत को केवल धार्मिक अनुशासन न मानकर जीवन की उपयोगी और सरल मानवीय पद्धति के रूप में प्रस्तुत किया है। इस विचारधारा को पुष्ट करने के लिए उनकी रचनाएँ प्रेरणादायी मार्गदर्शिका का कार्य करती हैं।
उनके द्वारा दिए गए हजारों प्रवचनों को पुस्तक रूप में संकलित किया गया है। इनमें आचार-विचार, व्यवहारिक जीवन की समस्याएँ, ध्यान साधना, आत्म-शांति, जीवन के उद्देश्य और नैतिकता पर गहन मार्गदर्शन मिलता है। उनके प्रवचन मात्र उपदेश नहीं, बल्कि आत्म-चिंतन और व्यवहार परिवर्तन की प्रेरणा हैं। आचार्य महाश्रमण की कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियाँ निम्न जीवन पथ के प्रदीप-जीवन को कैसे सरल, संयमित और उद्देश्यपूर्ण बनाया जाए, इस पर बोधपूर्ण दिशानिर्देश। शासनश्री-तेरापंथ संघ और इसकी परंपरा के इतिहास एवं सिद्धांतों का वर्णन बताया। प्रत्येक दिवस की साधना-रोजमर्रा के आचरण और अनुशासन पर आधारित प्रेरणास्रोत लेख है। जीवन जीने की कला-जीवन के व्यवहारिक और आचारगत पक्षों पर सरस और सरल प्रस्तुतिकरण।