राजस्थान के साहित्य प्रेमी बाल मुकुंद ओझा एक ऐसे रचनाकार है जो बिना नागा के प्रतिदिन लिख कर अपनी आलेख रचनाओं से देश के समाचार पत्रों के माध्यम से समाज को चेताते हैं। इन्हें साहित्य और पत्रकारिता का संगम कहे तो अतिशोक्ति नहीं होगी। समसामयिक, सामाजिक, संस्कृति आदि विषयों पर इनके विचार परक लेख न केवल समाज वरन सरकार की आंखें भी खोलती है।
इन की लेखन शैली सहज और सरल रूप में कथात्मक, वर्णनात्मक,व्याख्यात्मक,
शोधात्मक, विश्लेषणात्मक, समीक्षात्मक है। जटिल शब्दों के प्रयोग से बचते हैं और बहुत ही सरल भाषा में लिखते हैं जो पाठक के मन को सीधी गहराई तक छू लेती है। इनकी साहित्यिक चेतना इनके द्वारा लिखी गई लघु कथाओं में साफ झलकती हैं। इनकी कथाएं एक समय में बच्चों की सर्वप्रिय बाल पत्रिका चंदा मामा की याद ताजा करती है जिसमें ताल बेताल की सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली कहानी होती थी। इनकी इसी प्रकार की कहानी "जब बाड़ ही खेत को खाये" का नमूना देखिए.............
" राजा विक्रम ने जैसे ही शव को कंधे पर डाला, शव बोल उठा। उसने कहा हे राजन मैं तुम्हे एक कलियुगी कहानी सुना रहा हूँ। तुमने उसका सही - सही जवाब नहीं दिया तो तुम्हारे सिर के टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे। एक नगर में राजा कुंवर सिंह राज करता था। उसके राज में डाकुओं का बोलबाला अधिक था। वे जनता की सम्पति लूटते और भाग जाते। इससे जनता में राजा के प्रति रोष फैल गया। राजा लाख जतन के बाद भी डाकुओं को नहीं पकड़ सका। वह डाकुओं को पकड़ने में समर्थ क्यों नहीं था। इसका जवाब तुमने सही- सही नहीं दिया तो तुम्हारे सिर के टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे। विक्रम ने कुछ सोचा और फिर कहा, बेताल जैसा कि तुमने पहले ही कहा था कि कलियुगी कहानी सुना रहा हूँ। जिस खेत को बाड़ ही खा जाये तो उसका राम ही रखवाला है। सही बात यह है कि राजा का एक मंत्री और कोतवाल ही डाकुओं से मिला हुआ था। जैसे आज के लोकतंत्र के कथित रहनुमा दलालों से मिलकर राष्ट्र की नीवं खोखली कर रहे है वैसे ही वह मंत्री भी डाकुओं से मिला हुआ था। यही कारण था कि राज में दिया तले अँधेरा था और राजा डाकुओं को पकड़ने में असमर्थ था। इतना कहते ही बेताल फिर डाल पर जा बैठा। "
** रचनाकार ने लोक प्रचलित ताल बेताल की कहानी से अपने कथानक में राष्ट्र की नीव को खोखली करने वालों पर जबरदस्त कटाक्ष किया है। सरल भाषा की कहानी की बुनावट कसी हुई है और संदेश को लोगों तक पहुंचाने में सफल रही है। देखिए कुछ अत्यंत लघु कथाओं की बानगी, जिनका संदेश स्वयं में स्पस्ट हैं।
शिकायत झूठी है
" शिकायत झूठी है" गांव के भोले भाले ग्रामीण की कहानी कहती है कि किस प्रकार सरकारी मशीनरी द्वारा उनको बेवखूफ बनाया जाता है। " भोला भोला ग्रामीण कलेक्टर साहब की इजलास में पहुंचा और अपना दुखड़ा रोया। ग्रामीण ने कहा ,साहब वन विभाग वाले हर साल उसके गांव में वृक्ष लगाने का भत्ता उठा लेते है जब कि वास्तव में वहां होता कुछ भी नहीं है। कलेक्टर ने वन विभाग को तलब किया। फाइल मंगवाई तो देखा गांव में 200 वृक्ष लगे हुए है। ग्रामीण ने भगवान की दुहाई दी तो अगले दिन कलेक्टर मौका मुआयना पर पहुंचे। वनकर्मी कलेक्टर को उसी ग्रामीण के खेत पर ले गए और वहां खड़े वृक्षों को गिना दिया। ग्रामीण ने लाख कहा कि ये वृक्ष उसने लगाए है मगर कलेक्टर साहब शिकायत झूठी है कह कर चले गये।"
खेद और खुशी
" खेद और खुशी" लघु कथा में लेखक की मनोभवाना देखिए " नौसिखिया लेखक आज बेहद खुश था। उसकी खुशी का कारण रचना की वापसी था। इससे पूर्व उसकी भेजी रचनाएं संपादकों ने कभी वापस नहीं लौटाई। मगर आज खेद सहित पर्ची पढ़कर वह फूला नहीं समाया। उसने मंदिर में धोक लगाई और कहा प्रभु , रचना नहीं छपने का दुःख नहीं मगर संपादक ने खेद प्रकट किया है, इसी में उसकी खुशी है।"
मेहनत की रोटी
'" मेहनत की रोटी " कथा मेहनत कर रोटी खाने का सुख क्या होता पर आधारित है।
" गृहिणी की फटकार का उस पर कोई असर नहीं पड़ा। उसने यह गांठ मन में बांध रखी थी कि वह भिखारी है और उसका धंधा भीख मांगने का है। किसी घर से मिलता है तो किसी से नहीं। मगर उसे आज अनोखी फटकार मिली। गृहिणी ने उसे फटकारते हुए कहा कि ,मोटे ताजे हो भीख मांगते शर्म नहीं आती, कहीं काम धंधा क्यों नहीं करते। इस फटकार से पहले तो वह चकराया फिर हिम्मत करके बोला, जी हम भिखारियों को काम कोन देगा। गृहिणी ने कहा मैं दूंगी। वह उसी दिन उसे अपने खेत पर ले गई। उसने दिन भर खेत पर काम किया ,शाम को बाजरे की रोटी खाई तो उसका मन भर आया। आखिर मेहनत की रोटी भीख की रोटी से लाख गुना स्वादिष्ट जो होती है। "
इंटरव्यू :
" इंटरव्यू " कथा सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार पर करारा व्यंग्य लिए है कि किस प्रकार रिश्वत का बाजार गर्म है। " क्लर्क के पद के लिए तहसील कार्यालय में इंटरव्यू आयोजित किया गया। कोई आठ दर्जन अभ्यर्थी इंटरव्यू के लिए उपस्थित हुए। सभी से पूछा गया कि इंटरव्यू में उत्तीर्ण होने के लिए आवश्यक योग्यता क्या होनी चाहिए। कुछ ने अपनी शिक्षा का जिक्र किया तो कुछ ने अपना अनुभव बताया। एक अभ्यर्थी ने मेज के नीचे एक लिफाफ खिसकाया। उसे उतीर्ण घोषित किया गया।
बजट :
इनकी लघु कथा " बजट " मंगाई के जमाने में खाली जेब और आधुनिक तकनीक की जिद्दोजहद की दर्शाती है। " बजट को लेकर दो कार्यकर्ताओं में बहस छिड़ गई। एक ने कहा बजट साक्षात् समाजवादी है और जन कल्याण के लिए वित् मंत्री ने प्रभावी कदम उठाये है। दूसरे कार्यकर्ता ने बजट को अलोकतांत्रिक जन विरोधी और पूंजीपतियों का बजट करार दिया। पहले कार्यकर्ता ने दलील दी कि बजट से केवल डबल रोटी के भाव बढे है। मगर टीवी ,फ्रिज पर छूट दी गयी है। दूसरे ने कहा आम आदमी महंगाई के बोझ से दब गया है। साधारण व्यक्ति की क्रय शक्ति टूट गयी है। पहले कार्यकर्ता ने दलील दी कि डबल रोटी की चिंता छोडो। देश संसार की आधुनिक तकनीक को अपना रहा है। इसलिए अब टीवी ,फ्रिज खरीदना जरूरी हो गया है दूसरा कार्यकर्ता इस दलील से निरुत्तर होकर कभी अपनी खाली जेब और कभी आधुनिक तकनीक के बारे में सोचने लगा।"
नियमों का उलंघन :
" नियमों का उल्लंघन " एक ऐसी रोचक कथा है जिसमें अपने इंक्रीमेट की फाइल पर दस्तखत करने के लिए अफसर खुद जेब से रुपए निकाल कर फाइल पर रख कर रिश्वत लेने के अपने बनाए नियम की रक्षा करता दिखाई देता है। "अफसर की चाटुकारिता करते करते बाबू अफसर का मिजाज जान गया। जैसे ही उसने फाइल मेज पर रखी। अफसर ने उसे डांटा। बाबू ने बताया फाइल की मिजाजपुर्सी हो चुकी है। अफसर ने अपने हस्ताक्षर कर दिए। आज भी सदा की तरह बाबू ने जैसे ही फाइल रखी अफसर ने आदत के मुताबिक उसे डांटा। बाबू ने लाचारी दिखाई। अफसर टस से मस नहीं हुआ। फाइल खुद अफसर के इंक्रीमेंट की थी। आज बाबू भी झुकने को तैयार नहीं हुआ। आखिर अफसर ने फाइल खोली और झट से जेब से राशि निकाल कर फाइल पर रख दी और कहा ध्यान रहे, नियमों का उल्लंघन किसी भी हालात में सहन नहीं किया जायेगा।"
रचनाकार की ये कतिपय छोटी - छोटी कथाएं हमारे समाज की सच्चाई का बयान कर चेताती
नज़र आती हैं।
विविध लेखन :
साहित्यिक अभिरुचि के साथ - साथ आपने पत्रकारिता में लेखन को अभिव्यक्ति का सबल मध्यम बनाया। राजस्थान सरकार के सूचना और जनसंपर्क विभाग की सेवाकाल के दौरान विकासात्मक लेख, फीचर, सफलता की कहानियां लिख कर विकासात्मक पत्रकारिता की। प्रचुर मात्रा में विभागीय साहित्य लेखन , संपदन और प्रकाशन किया। उस काल से आज तक निरंतर समाज, संस्कृति एवं पर्यटन आदि विषयों पर हजारों आलेख लिखे हैं। विगत 10 वर्षों से स्वतंत्र रूप से पत्रकारिता करते हुए इन विषयों के साथ - साथ समसामयिक, राष्ट्रीय कार्यक्रमों, राजनैतिक, सामाजिक समस्या प्रधान, यात्रा संस्मरण आदि अनेक विषय जुड़ते गए। समस्या चाहे पर्यावरण की हो या हो नशा मुक्ति, रक्तदान, आत्महत्या, अपराध, महिला सशक्तिकारण, बाल विकास, युवा उत्कर्ष आदि सभी सामाजिक समस्याओं पर खूब जम कर लिखते हैं। समाज और देश की हर समस्या और हर पहलू पर इनकी पैनी नज़र रहती है। कोई दिन ऐसा नहीं छूटता जब ये न लिखते हैं। देश - विदेश के समाचार पत्र और पत्रिकाओं में आलेख,फीचर,व्यंग्य और लघु कथाएं कितना लिखा क्या छपा सब बेहिसाब है। आज राजस्थान में बड़े पैमाने पर लिखने वाले लेखकों में शुमार हैं। क्या राजस्थान, क्या महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कोलकाता, पश्चिमी बंगाल हर प्रदेश में इनके लेखन की वर्चा होना लेखक की लेखनी का ही जादू है।
प्रकाशन :
रचनाकार की दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
एक है " लोकतंत्र का पोस्टमार्टम" जो विविध लेखों का संग्रह है। दूसरी " शिकायत झूठी है", लघु कथा संग्रह है।
सम्मान :
रचनकार के साथ - साथ आप कुशल और लोकप्रिय जनसंपर्क कर्मी हैं। आपको जनसम्पर्क अलंकरण लाइफ टाइम अचीवमेंट,
जन कवि प्रदीप शर्मा साहित्य पुरुस्कार एवं
अहिंसा सेवा सम्मान 2023 से सम्मानित किया जा चुका है।
परिचय :
मानवीय संवेदनाओं के रचनाकार हसमुख, मिलनसार, अथक परिश्रमी बाल मुकुंद ओझा का जन्म राजस्थान के चुरू में 21 फरवरी 1953 को पिता नोरतन लाल ओझा एवं माता राधा देवी के आंगन में हुआ। आपने राजनीति विज्ञान विषय में स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की। आप 1979 में सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में सहायक जन संपर्क अधिकारी के रूप में नियुक्त हुए और विभिन्न जिलों और मुख्यालय पर सेवा करते हुए 2013 में संयुक्त निदेशक पद से सेवा निवृत हुए। छात्र जीवन में आपने जेपी आंदोलन में सक्रीय भागीदार रहे और अनेक स्थानों के जनांदोलनों में गिरफ्तारी दे कर जेल यंत्रणा सही। ये 1974 से 1979 तक दैनिक राजस्थान पत्रिका के संवाददाता रहे। सेवा निवृत्ति के बाद से वर्तमान समय तक स्वतंत्र अधिस्वीकृत पत्रकार के रूप में पत्रकारिता करने के साथ - साथ साहित्य सेवा में भी लगे हुए हैं।